रविवार, 23 अक्तूबर 2016

[६]
आम दिनों साहब के बंगले पर बाहर खड़ा संतरी हर आने-जाने वाले की तलाशी लेता था, मगर आज तो होली का त्यौहार था। आज तो झुण्ड के झुण्ड लोग साहबों की एक नज़रे-इनायत की लालसा में वहां आ-जा रहे थे।  वैसे भी माली रामप्रसाद तो उसी बंगले का कामगार भी था, उसे कौन रोकता-टोकता?
वह सीधे बरामदे तक पहुँच गया और साहब-मेमसाहब को आदर से हाथ जोड़कर एक ओर खड़ा हो गया। और भी लोग थे जो साहब को होली मुबारक कह रहे थे।
थोड़ी ही देर में लोगों का झुण्ड पलट कर वापस गेट की ओर चल दिया,और साहब-मेमसाहब भी मुस्कराते हुए बंगले में वापस लौट गए।
थोड़ी देर के लिए बरामदे में सन्नाटा हो गया।
अब वहां माली रामप्रसाद के अलावा और कोई न था। संतरी भी दूर गेट के बाहर की ओर निकला हुआ था। उसके भी कुछ यार-दोस्त और मिलने वाले होली खेलने आ गए थे।
जिस बंगले में माली रामप्रसाद वर्षों से काम कर रहा था, उसी में किसी चोर की तरह कांपते हाथों से उसने जेब से रंग का वह पाउच निकाला और दूसरे हाथ से पास में पड़ा एक पत्थर भी उठा लिया।
जो रामप्रसाद पौधों को भी मुलायम हाथों से सहलाता हुआ सहेजता था उसने दाँत भींच कर पत्थर से साहब लोगों की नेम-प्लेट पर किसी उद्दंड शरारती युवक की तरह फुर्ती से तीन-चार वार किये।  वार इतने ज़बरदस्त थे, मानो रामप्रसाद आज भाँग खाकर आया हो। देखते-देखते पीतल के चार-पांच अक्षर टूट कर नीचे गिर गए।  एक-दो टूट कर टेढ़े-मेढ़े होकर वहीँ लटक गए।
आनन-फ़ानन में माली रामप्रसाद ने जेब से काले रंग की पुड़िया निकाली और हाथ में रंग लेकर तख्ती के नाम पर मल दिया। गाढ़ा रंग मानो कभी न छूटने के लिए नेम-प्लेट पर चिपक गया।
किसी चीते की सी फुर्ती से रामप्रसाद वापस पलटा और शान से धीरे-धीरे गेट की ओर जाने लगा। उसने नाम-पट्टी के साथ ये होली इतनी सफ़ाई के साथ खेली थी कि केवल साहब के नाम के ही सारे अक्षर टूट कर गिरे थे। रंग भी इस तरह पोता कि साहब का नाम पूरी तरह मिट गया था।
अब वहां केवल मैडम का नाम शान से जगमगा रहा था।
माली रामप्रसाद को लग रहा था कि जैसे उसने इस होली में अपनी सब बेटियों के साथ हुई ज़्यादती का बदला ले लिया था।
वह गेट के दरवाजे से इस तरह सर उठा कर निकला मानो स्वयं भगवान नरसिंह हरिणकश्यप को चीर कर वापस लौट रहे हों। संतरी भी हैरत से माली रामप्रसाद को जाते देखता रहा। आज जाते समय रामप्रसाद ने  रोज़ की तरह संतरी को सलाम भी नहीं किया था।
मगर आज संतरी ने भी इसका बुरा नहीं माना। जाने दो, होली के दिन भला कैसा "प्रोटोकॉल"?
  
                

[5]

वह लड़की थी तो क्या, अपने घर में  छोटी होने से लाड़-प्यार में पली थी।  लाड़ क्या सिर्फ अमीर लोग ही करना जानते हैं? अपने पिता की हैसियत-भर ठाट से तो वो भी रही ही थी।  तो अब ससुराल में ये उसे ज़रा भी नहीं सुहाता था कि उसे सब घर की नौकरानी समझें और दिन भर उसे घर के कामों में उलझाये रखें। इसलिए मौका मिलते ही पिता के घर चली आती थी।
माली रामप्रसाद की आँखों में आंसू आ जाते थे जब बिटिया उससे पूछती थी कि आपने बेटे क्यों नहीं पैदा किये, कम से कम दूसरों की बेटियों को लेकर तो आते।
माली रामप्रसाद के अंतर के जख्मों को एक तरह से मरहम सा लग जाता था जब वह देखता कि उसकी बेटियां ही नहीं,बल्कि शहर की जिलाअधिकारी तक महिला होने का मोल चुका रही है।
धीरे-धीरे माली रामप्रसाद के मन में मैडम के प्रति सम्मान और स्नेह बढ़ता ही चला गया। वह जब भी ड्यूटी पर होता काम करते-करते हमेशा इसी बाबत सोचता रहता कि कैसे उसकी बेटियाँ सुखी रह सकें। वह कितना भी पिछड़ा सही, अब उसकी तीन नहीं, बल्कि चार बेटियां थीं।
वह निराई,गुड़ाई,सिंचाई,रोपाई करते हुए भी हरदम यही सोचता रहता था कि उसे दुनियां को हरा-भरा खुशहाल रखने वाली फ़सल उगानी चाहिए। उसका काम यही है कि वह ज़मीन को नुक्सान पहुँचाने वाले खर -पतवार को उखाड़ कर फेंकता रहे और ऐसे पौधे बोता-उगाता रहे जिनसे सबका भला हो। उसे इसी बात की तनख़्वाह तो मिलती थी।
वह जानता था कि वह एक अदना सा मुलाज़िम है और पैसे-रुतबे के हाथ की कठपुतली इस दुनिया में उसकी हैसियत कुछ भी नहीं है। लेकिन साथ ही एक अनुभवी इंसान के रूप में वो ये भी जानता था कि दुनिया अच्छी तभी रहेगी जब उसे अच्छा रखने की कोशिश की जाएगी। और ये कोशिश कोई भी कर सकता है। एक कई गज़ लंबी चादर जब फटने लग जाती है तो बित्ते -भर की सुई उसे सिल सकती है।
कुछ दिन बीते और बात आई-गयी हो गयी।  सब अपने-अपने कामों में लगे रहे और समय अपनी चाल से चलता रहा।
आज होली का त्यौहार था। शहर-भर रंगों की मस्ती और उल्लास के शोर-शराबे में डूबा हुआ था। जगह-जगह पर झुण्ड बना कर लोग होली खेल रहे थे। वैसे तो बड़ों की होली बड़ों के साथ और छोटों की छोटों के साथ ही जम रही थी पर साहब लोगों के बंगले पर हर छोटा-बड़ा आ रहा था।
साहब और मेमसाहब बार-बार बाहर आकर हर-एक से मिलते थे। बड़े लोग उनसे गले मिलते,रंग खेलते और मुंह मीठा करते, तथा छोटे लोग उन्हें हाथ जोड़ते, पाँव छूते और आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ जाते।
इतने बड़े त्यौहार पर हर मुलाज़िम अपने अफसर की देहरी छूना चाहता था।
माली रामप्रसाद भी घर से निकल कर पहले बंगले पर ही आया। वहअच्छी तरह जानता था कि साहब के बंगले पर उस जैसे छोटे कर्मचारी के लिए रंग-रोगन का कोई काम नहीं है,उसे तो बस साहब लोगों को सलाम बजा  कर ही आना है, उसने फिर भी थोड़ा सा रंग अपनी जेब में डाल लिया।
ये रंग भी कोई ऐसा-वैसा रंग नहीं था,बल्कि गहरा काला बदबूदार रंग था जिसे गली के लड़कों ने वार्निश और तारकोल से तैयार किया था। एक बार कहीं लग जाये तो महीनों इसके छूटने के आसार नहीं थे। पिछले साल तक तो वह खुद लड़कों को ऐसे रंग से न खेलने की चेतावनी और समझाइश देता रहा था मगर इस बार स्वयं एक लड़के से मांग कर ये रंग एक फॉयल वाले छोटे पाउच में रख लाया।
     
      
       
                 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2016

[४]
सब लोग सारा माजरा समझ गए, लेकिन साथ में ये भी समझ गए कि साहब लोगों के पास अगर उनकी शिकायत पहुंची तो एक-एक की ख़ैर नहीं।
घर की नौकरानी ने जब अनजाने ही ये राज खोल दिया कि साहब और मेमसाहब के बीच ओहदे को लेकर तनातनी रहती है तो सबको ये भी पता चल गया कि नौकरानी काफ़ी पुरानी है और उसके तरकश में और भी कई तीर हैं।
सब समय मिलते ही आते-जाते हुए उसे और कुरेदने की कोशिश करते। उसने भी इसी बहाने सब चपरासियों, ड्राइवरों और नीचे तबके के इन लोगों पर सिक्का जमाने को अपना शगल बना लिया।
गेट पर तैनात, कलेक्टर साहिबा का एक संतरी दो-एक बार इन लोगों को हड़का भी चुका था।
लेकिन माली रामप्रसाद के मन में उस दिन से मेमसाहब का रुतबा और भी बढ़ गया। वह दिल से उनका सम्मान पहले से भी ज़्यादा करने लगा।
वह रोज़ चुनिंदा फूलों का एक शानदार गुलदस्ता तैयार करता और घर के विज़िटर्स रूम में उस मेज पर सजाता, जहाँ मैडम सुबह के समय आगंतुकों से मिल कर उनकी समस्याएं सुना करती थीं। भीतर के बरामदे में साहब ने भी एक टेबल लगवाई थी जहाँ शाम को कभी-कभी वह दारू पीने बैठा करते थे। फ्लॉवरपॉट वहां भी था, पर माली रामप्रसाद ने कभी वहां भूल कर भी एक पत्ती तक नहीं सजाई थी।
एक बार नौकरानी ने माली को टोका भी,कि अंदर की मेज पर भी फूल रखा करे। रामप्रसाद उस दिन बड़े बेमन से क्यारी में नीचे गिरे गेंदे के कुछ फूल समेट कर ठूँस गया।
जबकि मेमसाहब की मेज़ का गुलदस्ता वह ताज़ा खिले गुलाबों से सजाता था।
एक दिन बाहर के लॉन में सुबह घर के सब लोग बैठे चाय पी रहे थे, तब माली एक सुंदर सा ताज़ा खिला गुलाब लेकर मेमसाहब के सामने पहुँच गया और उन्हें भेंट करके उसने साहब की ओर कनखियों से देखते हुए मैडम को एक ज़ोरदार सैल्यूट मारा। मैडम मुस्करा कर रह गयीं।
लेकिन साहब के मानस-महल में मानो माली के व्यवहार से भयानक टूटफूट सी हो गयी। उन्होंने चिढ कर अख़बार उठा लिया।
साहब की माताजी ने तो प्याले में चाय अधूरी छोड़ दी और उठ कर भीतर अपने कमरे में चली गयीं।
असल में रामप्रसाद के इस व्यवहार के पीछे भी एक कारण था। उस गरीब के तीन बेटियां थीं, जिन्हें उसने किसी तरह हाथ-पैर जोड़ कर ब्याह तो दिया था, मगर वे सभी अपने-अपने घर में अपने शौहरों के जुल्म सह रही थीं।
बड़ी बेटी तो दसवीं तक पढ़ कर पंचायत में आशा-सहयोगिनी के पद पर नौकरी भी कर रही थी। मगर उसका निखटटू पति सारा दिन बेकार घूम कर समय काटता था। उसका पूरा घर पत्नी की कमाई से ही चलता था पर पत्नी से घर में कोई सीधे-मुंह बात तक नहीं करता था। बीमारी तक में उसे इस डर से छुट्टी नहीं लेने देते थे कि कहीं पैसे न कट जाएँ। घर के काम में कभी कोई मदद न करता।
उधर मझली अपने लंबे चौड़े परिवार के कारण हलकान थी। उसे अनपढ़ होने के ताने मिलते।
तीसरी तो आये दिन पीहर में ही आ बैठती थी। घर के झगड़े उस से सहन नहीं होते थे।              
 
 
                   

सोमवार, 17 अक्तूबर 2016

[३]
एस्टेब्लिशमेंट सेक्शन के दफ्तरी दुर्गालाल ने अपनी गोपनीयता भरी वाणी में कोई रहस्योद्घाटन सा करते हुए कहा- शायद प्रधानमंत्री कार्यालय से आयी कुछ योजनाओं के बाबत बाहर की दीवार पर जानकारी लिखी जाएगी, इसी से नाम-पट्टिका भीतर लायी गयी है।
-अरे पर दीवार पर जगह की कोई कमी है क्या, नामपट्ट लगाने के लिए जगह ही कितनी चाहिए? गार्ड ने शंका जताई। उसे ये काफी नागवार गुज़र रहा था कि बंगले के बाहर साहब का नाम क्यों नहीं लिखा जा रहा ?आखिर उसकी शान तो दिनभर गन हाथ में लेकर गेट पर नाम के साथ खड़े होने में ही थी। हर आता-जाता देखे तो सही, वह किसका सुरक्षा-गार्ड है। शहर के वीआईपी इलाके से गुज़रने वाले लोग तो बड़े लोगों की नेम-प्लेट देखते हुए ही गुज़रते हैं।
-नाम-पट्टिका तो पूरी दो बाई दो फिट की है, छोटी थोड़े ही है, जीएडी के चपरासी ने अपना पेंच रखा।
तो क्या, अब उसकी वैल्यू ही क्या रह जाएगी बरामदे में टांगने से?
शोर-शराबा सुन कर बंगले के बैठक-कक्ष में डस्टिंग कर रही महिला भी बाहर निकल आई।  उसे बड़ा अचम्भा हुआ, जब उसने देखा कि इतने सारे लोग घर के बाहर खड़े साहब लोगों की नेम-प्लेट पर छींटाकशी कर रहे हैं। घर की वह नौकरानी साहब लोगों के थोड़ी मुंहलगी भी थी और काफी पुरानी भी। इसी से वह फैमिली मेम्बरों की तरह ही घर पर अपना कुछ अधिकार भी समझती थी।
वह लगभग झिड़कने के से स्वर में ही बोली- मेम साहब ने ही बोला है तख्ती भीतर टांगने को।
-क्यों? तीन-चार लोग लगभग एक साथ बोल पड़े।
-अरे बाबा, तुमको दीखता नहीं? पट्टी पर दोनों साहब का नाम है। साहब का भी और मेम साहब का भी।
यह सुनते ही गिरधारी लाल के हाथ में पकड़ी नेम-प्लेट को सब पॉलीथिन का कवर हटा कर देखने लगे। सच में वहां श्री और श्रीमती पंड्या दोनों का नाम लिखा था।
रश्मि पंड्या आई ए एस ऊपर था,और सिद्धार्थ पंड्या, पी सी एस उसके नीचे।
अब खुसर-फुसर की दिशा बदल गयी।
साहब पी सी एस हैं ? उनका तबादला भी तो आठ दिन पहले यहाँ हुआ है। एक कर्मचारी ने मानो राज खोला।
तो क्या मैडम साहब से बड़े ओहदे पर हैं? दफ्तरी को मानो विश्वास नहीं हुआ।
-हैं तो क्या ? इसी से तो मेमसाहब ने नाम पट्टी इधर टांगने को बोला, बाहर से सब शहर का लोग देखेगा नहीं कि मेमसाहब साहब से बड़े ओहदे पर हैं, इधर का जिला अधिकारी ? साहब का फालतू में हेठी होगा। नौकरानी ने शान से ये रहस्य खोल कर सब पुरुषों को मानो मात ही दे डाली हो। उसकी आवाज़ ऐसे खनक रही थी जैसे उसकी मालकिन नहीं, बल्कि वह खुद इस शहर की जिला अधिकारी हो और ये सारे उसके मातहत। वह इतना ही बोल कर नहीं रुकी,  उसने एक रहस्य और खोल दिया, बोली- मालूम है, दो महीना पहले साहब का माँजी आया था तब वो भी साहब को बोला कि इधर ट्रांसफर मत कराना , नहीं तो बहू के रुतबे में रहना पड़ेगा। और ज़्यादा दिमाग चढ़ेगा उसका। नौकरानी ने झटपट मुंह पर हाथ रखा, ... बाबा ये क्या बोल गयी सब लोग के सामने?
अच्छा तभी ?...जीएडी के बाबू ने घोर आश्चर्य से कहा- पहले ये प्लेट गलत बन गयी थी।  ऊपर साहब का नाम था, नीचे मेम साहब का।
गलत नहीं बनी थी, मैडम ने खुद अपने हाथ से लिख कर दिया था, साहब का नाम ऊपर और अपना नीचे, मैं ही देने गया था डिपार्टमेंट के पेंटर को। ड्राइवर बोला।
-फिर?
-फिर क्या, प्रोटोकॉल वाले उसे कैंसल कर गए, दोबारा बनी। इस मामले में उन्होंने जिला अधिकारी के हाथ का लिखा भी काट दिया। ड्राइवर ने खुलासा किया।
पर मैडम ने ऐसा क्यों लिखा, क्या उनको मालूम नहीं है कि जिला अधिकारी का नाम किसी विभाग के अंडर सेक्रेटरी के नीचे नहीं लिखा जा सकता ?
...ड्राइवर मुंह फेर कर अपनी व्यंग्यात्मक हंसी रोकने की कोशिश करते हुए बोला- मुझे साहब के ड्राइवर ने सब बताया था, खुद साहब ने ही मेमसाहब को बोला था कि मेरा नाम ऊपर डालना, बेचारी मेमसाहब क्या करती ?कलेक्टर है तो क्या ,ऊपर तो साहब ही रहेंगे।
... औरत है न बेचारी। नौकरानी के ऐसा बोलते ही एकदम चुप्पी छा गयी।
सब तितर-बितर होने लगे। कौन जाने कल ही साहब के पास इस मीटिंग की खबर पहुँच जाए,और लाइन हाज़िर होना पड़े.....       
               
[२]
रामप्रसाद की शंका का समाधान दोपहर बाद जाकर हुआ। असल में बंगले में काम करने के लिए तो सरकारी कर्मचारी गिरधारी लाल की ड्यूटी ही लगी थी पर धनराज उस गिरधारी लाल का बेटा था। गिरधारी ने धनराज को पहले बंगले पर भेज दिया था ताकि वह दीवार में तोड़-फोड़ का काम करले। धनराज तो विद्यालय में पढ़ता था पर आज स्कूल की छुट्टी होने से पिता के काम में हाथ बँटाने उसके साथ बंगले पर चला आया था।
बंगले में ट्रांसफर होकर कुछ दिन पहले ही नए साहब आये थे। मेंटिनेंस सेक्शन के कारीगर गिरधारी लाल को बंगले के बरामदे में साहब की नेम-प्लेट लगानी थी।
नेम-प्लेट ग्रेनाइट के काले पत्थर पर पीतल के अक्षरों से बनी सुंदर सी पट्टिका थी। उसे दीवार में लगाना था। काम छोटा नहीं था। पहले दीवार में गड्ढा करके जगह बनानी थी, फिर उसमें सीमेंट से प्लेट लगाकर चारों ओर प्लास्टर करना था। और तब उसके बाद दीवार पर फिर से डिस्टेम्पर किया जाना था।
एक पिक-अप से जब गिरधारी लाल पत्थर की वह बेशकीमती नेम-प्लेट लेकर उतरा,तो उसके साथ ही दो-चार लोग और भी उतरे।
वे लोग वैसे तो बंगले में किसी न किसी अलग-अलग सरकारी काम से ही आये थे पर न जाने किस बहस में उलझे हुए वहीं घेरा बना कर खड़े हो गए। उनके बीच किसी रोचक मज़ेदार मुद्दे को लेकर चर्चा चल रही थी, दूसरे दोपहर का समय होने से साहब-मेमसाहब भी बंगले पर नहीं थे। तब भला उन्हें किसका डर?
तो सब उस ग्रुप-डिस्कशन में इस तरह उलझे हुए थे मानो सरकार ने किसी मुद्दे पर पूरी तहकीकात करने का जिम्मा उन्हीं को सौंपा हो।
उनकी उस गरमा-गर्म चर्चा का मुद्दा वही नेम-प्लेट थी जिसे अभी-अभी लेकर गिरधारी लाल आया था।
वास्तव में हमेशा वह नेम-प्लेट बंगले की चार-दीवारी अर्थात बाउंड्रीवाल के बाहर लगा करती थी किन्तु न जाने क्यों,इतने सालों में पहली बार अब उसे भीतरी बरामदे की दीवार पर लगाया जा रहा था।
-तो क्या इतने बड़े अफसर के बंगले पर बाहर अब कोई नाम-तख्ती नहीं होगी?
-शहर भर के लोग कैसे जानेंगे कि आखिर बंगला किसका है?
-क्या बाहर की दीवार की जगह सरकार ने भारी मुनाफे के लालच में किसी विज्ञापन कंपनी को बेच डाली?
-या फिर अब सरकारी लोक-लुभावन नारे वहां लिखे जायेंगे?
-लेकिन इतने सुन्दर और भव्य बंगले की शोभा बिगाड़ने का ये प्लान भला सरकार को क्यों सूझा ?
-बंगले में एक बार अंदर आ जाने के बाद किसी आगंतुक के लिए उसमें रहने वाले की नेम-प्लेट का भला क्या महत्त्व है?
यही वे चंद सवाल थे जिन पर मातहतों के बीच बात हो रही थी, वो भी किसी बहस-मुबाहिसे की शक्ल में !
रामप्रसाद माली ही नहीं, इधर-उधर काम कर रहे और भी लोग, आगंतुक, राह चलते लोग इस चर्चा के निपट तमाशबीन ही बन कर इर्द-गिर्द जमा होते जा रहे थे।
गिरधारी लाल का बेटा धनराज भी अब सुबह से पहनी बनियान के ऊपर अपनी टी-शर्ट डाल कर वहीं आ जुटा था।  उसकी चिंता ये थी कि जब अब तक नेम-प्लेट को लगाने की जगह ही इतनी विवादास्पद है तो उससे नाहक इतनी मज़बूत दीवार में गड्ढा क्यों खुदवा लिया गया? वह सुबह से हथौड़ा चला कर पसीना बहाता हुआ हलकान हुआ जा रहा था।
उसने कातर दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा, किन्तु पिता के चेहरे का विश्वास देख कर उसे यकीन हो गया कि उसने कोई गलती नहीं की है, नेम-प्लेट वस्तुतः वहीँ लगाई जानी है।वह चेहरे पर इत्मीनान लाकर वार्तालाप के मज़े लेने लगा।   
               

रविवार, 16 अक्तूबर 2016

प्रोटोकॉल
जाड़े के दिनों में पेड़-पौधों को पानी की बहुत ज़्यादा ज़रूरत नहीं रहती। तापमान कम रहने से वातावरण की नमी जल्दी नहीं सूखती। बल्कि इस मौसम में खिलते फूलों को तो हल्की-हल्की गुलाबी धूप ही ज़्यादा सुहाती है। इसलिए माली रामप्रसाद काम के तनाव में नहीं था।
वह दो-चार खर-पतवार के तिनके इधर-उधर करके,पानी का पाइप क्यारियों में छोड़ता और हथेली पर खाज करता हुआ बरामदे में काम कर रहे लड़के धनराज के पास आ बैठता। सर्दियों में हाथ बार-बार सूखा -गीला करते रहने से हथेली की त्वचा ख़ुश्की से खुजलाने लग जाती थी।  लगता था जैसे बदन पर से उम्र की परतें उतर रही हों।
धनराज कम उम्र का लड़का था, इसलिए उस पर मौसम का कोई असर नहीं था। वह मुस्तैदी से काम किये जा रहा था।
-तेरी उम्र कितनी है? रामप्रसाद ने पूछ ही लिया।
-क्यों? धनराज ने एकाएक हाथ रोक कर पूछा।
उसके सुर की तल्खी से रामप्रसाद सकपका गया। हड़बड़ा कर बोला-सरकारी नौकरी तो कम से कम अठारह साल में मिलती है न, तू हो गया ?
लड़का थोड़ा घूर कर अप्रसन्नता से रामप्रसाद को देखता रहा, फिर लापरवाही से एक ओर थूक कर बोला- किसको मिली है नौकरी?
रामप्रसाद असमंजस में पड़ कर चुप हो गया और धनराज को दीवार पर टिकी छैनी पर हथौड़े का वार करते हुए देखने लगा।
दरअसल माली रामप्रसाद की मोटी बुद्धि यही कहती थी कि इतने बड़े सरकारी बंगले में काम करने आया आदमी सरकारी नौकर ही तो होगा। उसने सोलह-सत्रह साल के लड़के को काम करते देखा तो सहज ही पूछ लिया।
खुद रामप्रसाद को भी तो तनख़ा सरकारी खजाने से ही मिलती थी।
ये बात अलग थी कि उसकी तैनाती बरसों से इसी बंगले पर थी। उसे नहीं पता था कि उसका वेतन कहाँ से आता है, कौन लाता है, कैसे लाता है, उसे तो बस हर महीने बंगले में रहने वाले साहब का कोई मातहत गिन कर पैसे पकड़ा जाता था और चील-कव्वे जैसे उसके दस्तखत ले जाता था।
अनपढ़ रामप्रसाद को बीज बोकर उसका दरख़्त बना देना तो आसान लगता था पर दस्तखत करने में पसीना आ जाता था।
इन बरसों में उसके देखते-देखते कई साहब लोग बदल कर जा चुके थे। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन से साहब आये, कौन से गए।उसका काम तो बंगले को गुलज़ार रखने का था। उसमें वो कोई कोताही नहीं करता था।
कई बार ऐसा भी हुआ कि एक साहब के जाने और दूसरे के आने के बीच समय का लंबा अंतराल रहा। लेकिन रामप्रसाद ने खाली बंगले की भी कोई गुल-पत्ती कभी लापरवाही के चलते मुरझाने नहीं दी।    
                     

बुधवार, 28 सितंबर 2016

साफ़ -सफ़ाई होती अच्छी
रहे स्वच्छता सदा मिशन
मंगल -ग्रह पर करें सफाई
मिल जाये जो परमीशन
बोला शेर- "वहां कर दूंगा
साफ-सफाया हिरनों का"
चला मिटाने धूर्त भेड़िया
नामो-निशाँ मेमनों का
कुत्ता कहता-"एक न छोड़ूं
मंगल ग्रह पर मैं बिल्ली"
बिल्ली बोली-"खाऊं चूहे
परमीशन देदे दिल्ली"
बच्चे बोले- "कैसी बातें
करते हैं ये अनपढ़ लोग
नहीं गंदगी दूर भगाते
बस करना चाहें सब भोज
खाना ही है तो फल खाओ
लीची-सेव-पपीता-आम
काम करो मेहनत से सारे
जिस से हो मंगल पे नाम" !   

मंगलवार, 27 सितंबर 2016

श्रीहान और सुयश का स्कूल देख कर दोनों जुगनू "ए"और "वन" बहुत ही खुश हुए।
वे दोनों कॉकरोच के कंधे पर बैठ कर ही स्कूल आये थे। कॉकरोच की धीमी चाल के कारण कबूतर ने उसे चोंच में पकड़े एक तिनके पर बैठा लिया था और उड़ कर यहाँ ला पहुँचाया था।
स्कूल की प्रार्थना के बाद राष्ट्रगीत में जब बच्चों ने गाया -"जन गण मंगल दायक जय हे" तो दोनों जुगनुओं की आँखें ख़ुशी के आंसुओं भीग गयीं। अपने ग्रह का नाम इतनी दूर बच्चों के मुख से सुन कर वे गदगद हो गए।
लौटते समय जुगनू तो अपने ग्रह को याद कर रहे थे किन्तु कॉकरोच का पूरा ध्यान सुयश के टिफ़िन में बचे खाने पर था। वह इस इंतज़ार में था कि घर पहुँच कर सुयश के टिफ़िन की जूठन डस्टबिन में फेंकी जाए और उसे दावत मिले।
शाम को सबने मिलकर जुगनुओं को "ज़ू" दिखाने का कार्यक्रम बनाया। चिड़ियाघर कहे जाने वाले इस ज़ू में हाथी,ज़िराफ,ऊँट,शुतुरमुर्ग,दरियाईघोड़ा,बारहसिंघा,घोड़ा, गेंडा,भैंस,शेर,बाघ,चीता,रीछ,लकड़बग्घा,कंगारू,भेड़िया,हिरण,गोरिल्ला,लंगूर,बन्दर,मगरमच्छ,भालू जैसे एक से एक विशालकाय प्राणी थे। इनके साथ तोता,मोर,बगुला,नीलकंठ,कोयल,सारस,गौरैया,मैना , बत्तख और मुर्ग़े की छटा भी देखते ही बनती थी।  
जुगनुओं ने अब तक अपने दोस्तों -छिपकली,मेंढकी,कॉकरोच,कबूतर,गिलहरी आदि को ही देखा था।
जब उन्होंने वहां इन भीमकाय प्राणियों को देखा तो मन ही मन फ़ैसला किया कि वे इनमें से कुछ को अपने साथ मंगल पर चलने का निमंत्रण देंगे। उन्होंने सोचा-यदि ये वहां चले तो उनके ग्रह पर भी रौनक हो जाएगी।
गिलहरी को जैसे ही जुगनुओं की इस मंशा का पता चला, उसने तत्काल जुगनुओं को सलाह दी कि ये सब प्राणी भोजन-भट्ट हैं, इन्हें यूँही खाना मत देना, इनसे कुछ काम-धाम भी करवाना।
मेंढकी बोल पड़ी-"तुम मंगल ग्रह पर सफाई अभियान चला देना। इस से ये सब कुछ तो काम-धाम करेंगे"
                   
  

बुधवार, 21 सितंबर 2016

मंगल ग्रह से आये देखो
दो छोटे-छोटे मेहमान
आओ इन्हें घुमाएंगे हम
अपना प्यारा  हिंदुस्तान
इनका ग्रह है नया-नवेला
वहां नहीं रहते हैं लोग
ये संग उसको ले जायेंगे
काम करे डट के जो रोज
याद मगर ये रखना मित्रो
जीवन है वो मस्ती का
काम वहां मेहनत से करके
मान बढ़ाना धरती का !
मगर तभी तिलचट्टा आया
बोला चुपके कानों में
मंगल ग्रह जाने वालों के
नाम लिखे मेहमानों ने
नाना इनको नहीं भेजना
सारे बात बनाते हैं
हाथ नहीं धोते साबुन से
शौच खुले में जाते हैं !


तभी आसमान से अचानक ज़ोर-ज़ोर से बादलों के कड़कड़ाने की आवाज़ आने लगी। गरज के साथ ही कुछ मोटी-मोटी बूँदें गिरनी शुरू हुईं और देखते-देखते मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी।  अपना-अपना काम रोक कर सब गैरेज में ही इधर-उधर छिप गए।
अरे ये क्या? आकाश केवल बारिश करके ही नहीं रुका,बल्कि बूंदों के पीछे-पीछे रुई के सफ़ेद फाहे से ओले भी झमाझम नाचते हुए गिरने लगे।
एक बड़ा सा सफ़ेद बर्फ का गोल टुकड़ा उछलता हुआ गैरेज के ठीक सामने की ओर आकर गिरा।
कॉकरोच चिल्लाया-"वो देखो वो देखो...."
-"क्या" मेंढकी ने गर्दन उठा कर देखते हुए कहा।
-"मुझे लगता है कि वो ओला नहीं है बल्कि उस में ही मंगल ग्रह के जुगनू आये हैं।" कॉकरोच ने पूरे विश्वास से कहा।
गिलहरी डाँट कर बोली -"चल ! तुझे वो ओला टैक्सी दिखती है क्या?"
सब हँस पड़े।
इतने में ही दीवार पर ऊपर की तरफ से रेंगती हुई एक छिपकली नीचे आई और बोली-"तुम लोग इस कॉकरोच की हँसी उड़ा रहे हो, मगर ये एकदम ठीक बात कह रहा है। मैं अभी ऊपर से देख रही थी, ये जो बड़ा सा ओला आकर गिरा है, इसमें से ज़ोर की चमक बार-बार निकलती है।  ये ज़रूर कोई अजूबा है।  साधारण बर्फ का गोला नहीं है।"
छिपकली की बात से सब चौकन्ने हो गए और रोमांचित होकर उस तरफ देखने लगे जिधर वह ओला पड़ा था। सचमुच ऐसा लग रहा था कि बर्फ का वह टुकड़ा धूप में चमक रहा हो।  लेकिन धूप का तो कहीं नामो-निशान नहीं था, आसमान तो बादलों से घिरा था।
-"शायद भीतर से जुगनू लोग टॉर्च डाल कर बाहर का मुआयना कर रहे हैं?" मेंढकी ने कहा।
-"तो वो निकलने में इतनी देर क्यों लगा रहे हैं?"गिलहरी से रहा न गया।
-"इतनी दूर से आये हैं, वो थके-मांदे भी तो होंगे।"कॉकरोच बोला।
-"और भूखे भी तो।" मेंढकी ने चिंता जताई।
-"अरे पर वो दिखते क्यों नहीं हैं? 'मिस्टर इंडिया' हैं क्या ?"छिपकली झल्लाई।
-"मिस्टर इंडिया कैसे हो सकते हैं, वे तो मिस्टर मंगल होंगे।" कॉकरोच ने अपना ज्ञान बघारा।
एकाएक वहां भगदड़ सी मच गयी। एक चूहा तेज़ी से दौड़ता हुआ सामने से भागा, उसके पीछे-पीछे एक बिल्ली भी दौड़ लगाती हुई आई। चूहा झटपट एक पेड़ की जड़ में बने बिल में घुस गया, बिल्ली हाथ मलती रह गयी।
बिल्ली ने वहां इतने सारे प्राणियों को देखा तो शर्म से पानी-पानी हो गयी। अपनी झेंप मिटाने के लिए बोली-"मैं तो इस चूहे को खीर खिलाने के लिए बुला रही थी। शरारती कहीं का ! देखो न जाने कहाँ छिप गया।"                  
  
      

शनिवार, 17 सितंबर 2016

आज श्रीहान और सुयश स्कूल से कुछ देरी से वापस आने वाले थे। गिलहरी ने खुद अपने कानों से सुना था ,वे अपनी मम्मी को बता रहे थे कि आज उनके स्कूल में खेल की प्रतियोगिता है इसलिए लौटने में देरी होगी। मम्मी ने उन्हें लंचबॉक्स में भी न जाने क्या-क्या स्वादिष्ट चीज़ें बना कर दी थीं।  गिलहरी तो उसकी खुशबू से ही तृप्त हो गयी थी। वह बार-बार उनके बैग के चारों ओर चक्कर काटती और ये सोचती रही कि काश, वे दोनों टिफिन में कुछ जूठन बचा कर ले आएं और उनकी मम्मी गार्डन में रखी डस्टबिन में उसे फेंकें। गिलहरी के मज़े आ जाएँ। तभी गिलहरी को याद आया कि कल क्लब हॉउस के पीछे वाले पेड़ पर बैठे तोते ने कहा था-ज़्यादा लालच नहीं करना चाहिए। लालच सेहत को गिरा देता है।
गिलहरी ने मन ही मन भगवान से माफ़ी मांगी और दौड़ कर साइकिल गैरेज के चाबी वाले छेद में आराम करने चल दी। आज श्रीहान और सुयश देरी से आने वाले थे तो खूब देर तक उस जगह बैठने का मौका था।  गिलहरी ने हाथ में दो बड़े-बड़े जामुन लिए और फुदकती हुई चल दी।
लेकिन वहां जाकर तो गिलहरी के मंसूबों पर पानी ही फिर गया। वहां तो पहले से ही कबूतर, कॉकरोच, चिड़िया और छोटी मेंढकी जमा थे। मेंढकी लॉन से पानी का पाइप खींच कर चाबीघर को धो रही थी और कबूतर पंखों से झाड़-झाड़ कर उसे साफ़ कर रहा था। चिड़िया क्यारी से छोटे-छोटे फूल लाकर चाबीघर को सजाने में लगी थी। कॉकरोच चींटियों को वहां आने से रोक रहा था।
गिलहरी को अचम्भा हुआ-ये सब तैयारी किसलिए ? क्या यहाँ कोई आने वाला था? उसने आख़िर पूछ ही लिया।
चिड़िया चहचहाई-"लो, इसे ये भी मालूम नहीं,अरे हर साल सोलह अक्टूबर को मंगल ग्रह के जुगनू यहाँ आते हैं या नहीं? धरती पर ! वही तो हमारे मेहमान हैं। उन्हें ठहराने की तैयारी नहीं करनी ?"
ओह, अच्छा मैं तो भूल ही गयी थी।
मंगल ग्रह के जुगनू ए और वन हर साल ही यहाँ आते थे।  ये सब उनके दोस्त बन गए थे, सब मिल कर खूब मौज-मस्ती करते थे।
चिड़िया बोली-"इस बार तो ए और वन ये देख कर खुश हो जायेंगे कि श्रीहान और सुयश स्कूल भी जाने लगे हैं।"
-"हम लोग उन्हें स्कूल दिखा कर भी लाएंगे।" कबूतर ने पंख फड़फड़ाते हुए कहा।
-"कैसे" मेंढकी बोली।
-"कैसे क्या? मंगल ग्रह के जुगनू कोई हाथी-घोड़े थोड़े ही हैं,उन्हें तो मैं अपनी पीठ पर बैठा कर ही ले जाऊंगा।" कॉकरोच बोला।
गिलहरी से नहीं रहा गया। फ़ौरन बोली-"पीठ पर तो बैठा लेगा, पर वहां इतनी दूर जायेगा कैसे? सोमवार को गया तो मंगल को पहुंचेगा।"
-"अच्छा है न, मंगल ग्रह के जुगनू मंगल को ही पहुंचेंगे।" मेंढकी ने हंसी दबा कर कहा।
अपनी इस तरह खिल्ली उड़ती देख कर कॉकरोच तिलमिला गया।
बोला-"क्यों, जब उनकी मम्मी स्कूल छोड़ने जाती हैं तो वह क्या कार धीरे-धीरे नहीं चलातीं ?
-"अरे हाँ,ये ठीक कह रहा है, वह बहुत धीरे चलाती हैं, एक दिन सुयश अपना लिखने का चॉक घर पर ही भूल गया था, तो पीछे से उसे चौंच में दबा कर मैं देने गया। मैंने देखा कार तब तक आधे रास्ते में ही पहुंची थी। मैं उड़ता तो कार बार-बार पीछे रह जाती थी।"कबूतर ने कॉकरोच का पक्ष लिया।
-"फिर"? गिलहरी ने पूछा।
-"फिर क्या, मैं कार की खिड़की से चॉक सुयश को दे आया।" कबूतर बोला।
-"वाह !" सब एक साथ बोले।
-"मम्मी धीरे चलाती हैं तो श्रीहान कितना नाराज़ होता है, उसे पापा के साथ तेज़ी से घूमना अच्छा लगता है ?"कबूतर ने कहा।
-"लेकिन श्रीहान को तो साइकिल बहुत तेज़ चलाना अच्छा लगता है।"गिलहरी बोली।
-"अरे जा-जा, कल तो सड़क पर इतना धीरे चला रहा था कि मैं सड़क को आसानी से पार कर गयी।" मेंढकी ने गिलहरी की बात काटी।
गिलहरी ने झट सफाई दी-"अरे कल तो वो प्रगुनी को साइकिल चलाना सिखा रहा था, उस से कह रहा था कि ऑलिम्पिक में मैडल लड़कियों को ही मिलता है।"     
चिड़िया ने बात का पटाक्षेप किया, बोली-"कॉकरोच भाई का क्या है, ए और वन को पीठ पर बैठा कर श्रीहान या सुयश के बैग में ही घुस जायेंगे, तो स्कूल पहुँच जायेंगे।"            
             

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

झाँका पिंजरे में से, बोला-
प्यारा टैडी बियर
मैं जाऊंगा मंगल-ग्रह पे
बनके इंजीनियर !
बत्तख बोली-एक तो मैं हूँ
साथ मेरा मंगेतर
कितने ले जाने हैं तुमको
मंगल-ग्रह पे टीचर ?
भैया जुगनू जी मंगल पर
चाहो कोई नेता
गैंडा बोला-मुझे बुलाना
बाक़ी सब अभिनेता
जर्मन अंग्रेजी जापानी
सीखी उसने भाषा
मंगल-ग्रह पर जाने की थी
तोते को भी आशा
मुर्गा बोला- होता कैसे
बोलो वहां सवेरा ?
अगर कहो तो मैं भी चल कर
डालूँ अपना डेरा
सुना बहुत हैं बड़े वहां तो
गड्ढे उस धरती पर
वरना मैं भी आती मंगल
हथिनी बोली डर कर
भालू  बोला मुझे पता है
जंगल का कानून
मुझको लेके चलो बना दूं
मंगल का कानून 
   

सोमवार, 5 सितंबर 2016

मंगल ग्रह के जुगनू - 3

खूब ज़ोर से बारिश हो रही थी। बादलों को बरसते हुए कई घंटे बीत चुके थे, पर न जाने उनके मटके में कितना पानी था, उँडेले ही जा रहे थे।
बच्चे खेलना छोड़ कर घरों के भीतर तो आ गए थे, पर वर्षा का आनंद ही कुछ ऐसा था कि भीतर बैठ कर उनका मन नहीं लग रहा था।  खिड़कियों से झांकते सभी इस इंतज़ार में थे कि बारिश रुके तो फिर से धमाचौकड़ी मचाने घर से बाहर निकलें।
लेकिन जैसे-जैसे पानी बरसता था, चारों ओर सड़कों और मैदानों में पानी के तालाब से बनते जाते थे।
शायद श्रीहान और सुयश को मौसम के इस मिजाज़ का पूर्वानुमान पहले ही हो गया था इसी से उन्होंने अपनी साइकिलों के लिए एक छोटा सा गैरेज बना लिया था।
दोनों में से जो भी पहले आता उसे अपनी साइकिल भीतर की ओर रखनी पड़ती। जो देर से आकर बाद में रखता उसकी बाहर की ओर। मज़े की बात ये थी कि दोनों अक्सर साथ-साथ ही वापस घर आते, लेकिन दोनों ही ये कोशिश करते थे कि पीछे आकर अपनी साइकिल बाहर की ओर ही रखें ताकि सुबह पहले उसे निकाला जा  सके। कभी-कभी रात को खाना खाने के बाद भी यदि साइकिल पर घूमने का मन हो तो आराम से  लेकर सड़क पर आया जा  सकता था।
साइकिल गैरेज की छत की ओर एक छोटा सा छेद भी बनाया गया था, जिस से कभी-कभी साइकिल की चाबी वहां रखी जा सके।
एक ईंट हटा कर बनाया गया यह चाबी घर इतना सुन्दर था कि सामने के पेड़ पर रहने वाली गिलहरी का मन तो उसे देख कर ललचाता ही रहता था। वह चाहती थी कि उस चाबी घर को वह अपना रहने का कमरा बना ले। पेड़ के ऊबड़-खाबड़ तने पर सोने से गिलहरी की कमर दुखती थी। बढ़िया पक्के ईंट के फर्श पर सोने का तो आनंद ही निराला था। गिलहरी ने एक दिन खिड़की से खुद देखा था कि बाबा रामदेव टीवी पर पक्के फ़र्श पर सोने के कई लाभ बता रहे थे।
समस्या ये थी कि वहां श्रीहान और सुयश कभी-कभी अपनी चाबियाँ रखा करते थे। गिलहरी डरती थी कि वह आराम से वहां बैठी हो और उसी समय कोई आ जाये तो उसे दुम दबा कर भागना पड़े।