[२]
रामप्रसाद की शंका का समाधान दोपहर बाद जाकर हुआ। असल में बंगले में काम करने के लिए तो सरकारी कर्मचारी गिरधारी लाल की ड्यूटी ही लगी थी पर धनराज उस गिरधारी लाल का बेटा था। गिरधारी ने धनराज को पहले बंगले पर भेज दिया था ताकि वह दीवार में तोड़-फोड़ का काम करले। धनराज तो विद्यालय में पढ़ता था पर आज स्कूल की छुट्टी होने से पिता के काम में हाथ बँटाने उसके साथ बंगले पर चला आया था।
बंगले में ट्रांसफर होकर कुछ दिन पहले ही नए साहब आये थे। मेंटिनेंस सेक्शन के कारीगर गिरधारी लाल को बंगले के बरामदे में साहब की नेम-प्लेट लगानी थी।
नेम-प्लेट ग्रेनाइट के काले पत्थर पर पीतल के अक्षरों से बनी सुंदर सी पट्टिका थी। उसे दीवार में लगाना था। काम छोटा नहीं था। पहले दीवार में गड्ढा करके जगह बनानी थी, फिर उसमें सीमेंट से प्लेट लगाकर चारों ओर प्लास्टर करना था। और तब उसके बाद दीवार पर फिर से डिस्टेम्पर किया जाना था।
एक पिक-अप से जब गिरधारी लाल पत्थर की वह बेशकीमती नेम-प्लेट लेकर उतरा,तो उसके साथ ही दो-चार लोग और भी उतरे।
वे लोग वैसे तो बंगले में किसी न किसी अलग-अलग सरकारी काम से ही आये थे पर न जाने किस बहस में उलझे हुए वहीं घेरा बना कर खड़े हो गए। उनके बीच किसी रोचक मज़ेदार मुद्दे को लेकर चर्चा चल रही थी, दूसरे दोपहर का समय होने से साहब-मेमसाहब भी बंगले पर नहीं थे। तब भला उन्हें किसका डर?
तो सब उस ग्रुप-डिस्कशन में इस तरह उलझे हुए थे मानो सरकार ने किसी मुद्दे पर पूरी तहकीकात करने का जिम्मा उन्हीं को सौंपा हो।
उनकी उस गरमा-गर्म चर्चा का मुद्दा वही नेम-प्लेट थी जिसे अभी-अभी लेकर गिरधारी लाल आया था।
वास्तव में हमेशा वह नेम-प्लेट बंगले की चार-दीवारी अर्थात बाउंड्रीवाल के बाहर लगा करती थी किन्तु न जाने क्यों,इतने सालों में पहली बार अब उसे भीतरी बरामदे की दीवार पर लगाया जा रहा था।
-तो क्या इतने बड़े अफसर के बंगले पर बाहर अब कोई नाम-तख्ती नहीं होगी?
-शहर भर के लोग कैसे जानेंगे कि आखिर बंगला किसका है?
-क्या बाहर की दीवार की जगह सरकार ने भारी मुनाफे के लालच में किसी विज्ञापन कंपनी को बेच डाली?
-या फिर अब सरकारी लोक-लुभावन नारे वहां लिखे जायेंगे?
-लेकिन इतने सुन्दर और भव्य बंगले की शोभा बिगाड़ने का ये प्लान भला सरकार को क्यों सूझा ?
-बंगले में एक बार अंदर आ जाने के बाद किसी आगंतुक के लिए उसमें रहने वाले की नेम-प्लेट का भला क्या महत्त्व है?
यही वे चंद सवाल थे जिन पर मातहतों के बीच बात हो रही थी, वो भी किसी बहस-मुबाहिसे की शक्ल में !
रामप्रसाद माली ही नहीं, इधर-उधर काम कर रहे और भी लोग, आगंतुक, राह चलते लोग इस चर्चा के निपट तमाशबीन ही बन कर इर्द-गिर्द जमा होते जा रहे थे।
गिरधारी लाल का बेटा धनराज भी अब सुबह से पहनी बनियान के ऊपर अपनी टी-शर्ट डाल कर वहीं आ जुटा था। उसकी चिंता ये थी कि जब अब तक नेम-प्लेट को लगाने की जगह ही इतनी विवादास्पद है तो उससे नाहक इतनी मज़बूत दीवार में गड्ढा क्यों खुदवा लिया गया? वह सुबह से हथौड़ा चला कर पसीना बहाता हुआ हलकान हुआ जा रहा था।
उसने कातर दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा, किन्तु पिता के चेहरे का विश्वास देख कर उसे यकीन हो गया कि उसने कोई गलती नहीं की है, नेम-प्लेट वस्तुतः वहीँ लगाई जानी है।वह चेहरे पर इत्मीनान लाकर वार्तालाप के मज़े लेने लगा।
रामप्रसाद की शंका का समाधान दोपहर बाद जाकर हुआ। असल में बंगले में काम करने के लिए तो सरकारी कर्मचारी गिरधारी लाल की ड्यूटी ही लगी थी पर धनराज उस गिरधारी लाल का बेटा था। गिरधारी ने धनराज को पहले बंगले पर भेज दिया था ताकि वह दीवार में तोड़-फोड़ का काम करले। धनराज तो विद्यालय में पढ़ता था पर आज स्कूल की छुट्टी होने से पिता के काम में हाथ बँटाने उसके साथ बंगले पर चला आया था।
बंगले में ट्रांसफर होकर कुछ दिन पहले ही नए साहब आये थे। मेंटिनेंस सेक्शन के कारीगर गिरधारी लाल को बंगले के बरामदे में साहब की नेम-प्लेट लगानी थी।
नेम-प्लेट ग्रेनाइट के काले पत्थर पर पीतल के अक्षरों से बनी सुंदर सी पट्टिका थी। उसे दीवार में लगाना था। काम छोटा नहीं था। पहले दीवार में गड्ढा करके जगह बनानी थी, फिर उसमें सीमेंट से प्लेट लगाकर चारों ओर प्लास्टर करना था। और तब उसके बाद दीवार पर फिर से डिस्टेम्पर किया जाना था।
एक पिक-अप से जब गिरधारी लाल पत्थर की वह बेशकीमती नेम-प्लेट लेकर उतरा,तो उसके साथ ही दो-चार लोग और भी उतरे।
वे लोग वैसे तो बंगले में किसी न किसी अलग-अलग सरकारी काम से ही आये थे पर न जाने किस बहस में उलझे हुए वहीं घेरा बना कर खड़े हो गए। उनके बीच किसी रोचक मज़ेदार मुद्दे को लेकर चर्चा चल रही थी, दूसरे दोपहर का समय होने से साहब-मेमसाहब भी बंगले पर नहीं थे। तब भला उन्हें किसका डर?
तो सब उस ग्रुप-डिस्कशन में इस तरह उलझे हुए थे मानो सरकार ने किसी मुद्दे पर पूरी तहकीकात करने का जिम्मा उन्हीं को सौंपा हो।
उनकी उस गरमा-गर्म चर्चा का मुद्दा वही नेम-प्लेट थी जिसे अभी-अभी लेकर गिरधारी लाल आया था।
वास्तव में हमेशा वह नेम-प्लेट बंगले की चार-दीवारी अर्थात बाउंड्रीवाल के बाहर लगा करती थी किन्तु न जाने क्यों,इतने सालों में पहली बार अब उसे भीतरी बरामदे की दीवार पर लगाया जा रहा था।
-तो क्या इतने बड़े अफसर के बंगले पर बाहर अब कोई नाम-तख्ती नहीं होगी?
-शहर भर के लोग कैसे जानेंगे कि आखिर बंगला किसका है?
-क्या बाहर की दीवार की जगह सरकार ने भारी मुनाफे के लालच में किसी विज्ञापन कंपनी को बेच डाली?
-या फिर अब सरकारी लोक-लुभावन नारे वहां लिखे जायेंगे?
-लेकिन इतने सुन्दर और भव्य बंगले की शोभा बिगाड़ने का ये प्लान भला सरकार को क्यों सूझा ?
-बंगले में एक बार अंदर आ जाने के बाद किसी आगंतुक के लिए उसमें रहने वाले की नेम-प्लेट का भला क्या महत्त्व है?
यही वे चंद सवाल थे जिन पर मातहतों के बीच बात हो रही थी, वो भी किसी बहस-मुबाहिसे की शक्ल में !
रामप्रसाद माली ही नहीं, इधर-उधर काम कर रहे और भी लोग, आगंतुक, राह चलते लोग इस चर्चा के निपट तमाशबीन ही बन कर इर्द-गिर्द जमा होते जा रहे थे।
गिरधारी लाल का बेटा धनराज भी अब सुबह से पहनी बनियान के ऊपर अपनी टी-शर्ट डाल कर वहीं आ जुटा था। उसकी चिंता ये थी कि जब अब तक नेम-प्लेट को लगाने की जगह ही इतनी विवादास्पद है तो उससे नाहक इतनी मज़बूत दीवार में गड्ढा क्यों खुदवा लिया गया? वह सुबह से हथौड़ा चला कर पसीना बहाता हुआ हलकान हुआ जा रहा था।
उसने कातर दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा, किन्तु पिता के चेहरे का विश्वास देख कर उसे यकीन हो गया कि उसने कोई गलती नहीं की है, नेम-प्लेट वस्तुतः वहीँ लगाई जानी है।वह चेहरे पर इत्मीनान लाकर वार्तालाप के मज़े लेने लगा।
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