रविवार, 23 अक्तूबर 2016

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आम दिनों साहब के बंगले पर बाहर खड़ा संतरी हर आने-जाने वाले की तलाशी लेता था, मगर आज तो होली का त्यौहार था। आज तो झुण्ड के झुण्ड लोग साहबों की एक नज़रे-इनायत की लालसा में वहां आ-जा रहे थे।  वैसे भी माली रामप्रसाद तो उसी बंगले का कामगार भी था, उसे कौन रोकता-टोकता?
वह सीधे बरामदे तक पहुँच गया और साहब-मेमसाहब को आदर से हाथ जोड़कर एक ओर खड़ा हो गया। और भी लोग थे जो साहब को होली मुबारक कह रहे थे।
थोड़ी ही देर में लोगों का झुण्ड पलट कर वापस गेट की ओर चल दिया,और साहब-मेमसाहब भी मुस्कराते हुए बंगले में वापस लौट गए।
थोड़ी देर के लिए बरामदे में सन्नाटा हो गया।
अब वहां माली रामप्रसाद के अलावा और कोई न था। संतरी भी दूर गेट के बाहर की ओर निकला हुआ था। उसके भी कुछ यार-दोस्त और मिलने वाले होली खेलने आ गए थे।
जिस बंगले में माली रामप्रसाद वर्षों से काम कर रहा था, उसी में किसी चोर की तरह कांपते हाथों से उसने जेब से रंग का वह पाउच निकाला और दूसरे हाथ से पास में पड़ा एक पत्थर भी उठा लिया।
जो रामप्रसाद पौधों को भी मुलायम हाथों से सहलाता हुआ सहेजता था उसने दाँत भींच कर पत्थर से साहब लोगों की नेम-प्लेट पर किसी उद्दंड शरारती युवक की तरह फुर्ती से तीन-चार वार किये।  वार इतने ज़बरदस्त थे, मानो रामप्रसाद आज भाँग खाकर आया हो। देखते-देखते पीतल के चार-पांच अक्षर टूट कर नीचे गिर गए।  एक-दो टूट कर टेढ़े-मेढ़े होकर वहीँ लटक गए।
आनन-फ़ानन में माली रामप्रसाद ने जेब से काले रंग की पुड़िया निकाली और हाथ में रंग लेकर तख्ती के नाम पर मल दिया। गाढ़ा रंग मानो कभी न छूटने के लिए नेम-प्लेट पर चिपक गया।
किसी चीते की सी फुर्ती से रामप्रसाद वापस पलटा और शान से धीरे-धीरे गेट की ओर जाने लगा। उसने नाम-पट्टी के साथ ये होली इतनी सफ़ाई के साथ खेली थी कि केवल साहब के नाम के ही सारे अक्षर टूट कर गिरे थे। रंग भी इस तरह पोता कि साहब का नाम पूरी तरह मिट गया था।
अब वहां केवल मैडम का नाम शान से जगमगा रहा था।
माली रामप्रसाद को लग रहा था कि जैसे उसने इस होली में अपनी सब बेटियों के साथ हुई ज़्यादती का बदला ले लिया था।
वह गेट के दरवाजे से इस तरह सर उठा कर निकला मानो स्वयं भगवान नरसिंह हरिणकश्यप को चीर कर वापस लौट रहे हों। संतरी भी हैरत से माली रामप्रसाद को जाते देखता रहा। आज जाते समय रामप्रसाद ने  रोज़ की तरह संतरी को सलाम भी नहीं किया था।
मगर आज संतरी ने भी इसका बुरा नहीं माना। जाने दो, होली के दिन भला कैसा "प्रोटोकॉल"?
  
                

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