रविवार, 23 अक्टूबर 2016

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वह लड़की थी तो क्या, अपने घर में  छोटी होने से लाड़-प्यार में पली थी।  लाड़ क्या सिर्फ अमीर लोग ही करना जानते हैं? अपने पिता की हैसियत-भर ठाट से तो वो भी रही ही थी।  तो अब ससुराल में ये उसे ज़रा भी नहीं सुहाता था कि उसे सब घर की नौकरानी समझें और दिन भर उसे घर के कामों में उलझाये रखें। इसलिए मौका मिलते ही पिता के घर चली आती थी।
माली रामप्रसाद की आँखों में आंसू आ जाते थे जब बिटिया उससे पूछती थी कि आपने बेटे क्यों नहीं पैदा किये, कम से कम दूसरों की बेटियों को लेकर तो आते।
माली रामप्रसाद के अंतर के जख्मों को एक तरह से मरहम सा लग जाता था जब वह देखता कि उसकी बेटियां ही नहीं,बल्कि शहर की जिलाअधिकारी तक महिला होने का मोल चुका रही है।
धीरे-धीरे माली रामप्रसाद के मन में मैडम के प्रति सम्मान और स्नेह बढ़ता ही चला गया। वह जब भी ड्यूटी पर होता काम करते-करते हमेशा इसी बाबत सोचता रहता कि कैसे उसकी बेटियाँ सुखी रह सकें। वह कितना भी पिछड़ा सही, अब उसकी तीन नहीं, बल्कि चार बेटियां थीं।
वह निराई,गुड़ाई,सिंचाई,रोपाई करते हुए भी हरदम यही सोचता रहता था कि उसे दुनियां को हरा-भरा खुशहाल रखने वाली फ़सल उगानी चाहिए। उसका काम यही है कि वह ज़मीन को नुक्सान पहुँचाने वाले खर -पतवार को उखाड़ कर फेंकता रहे और ऐसे पौधे बोता-उगाता रहे जिनसे सबका भला हो। उसे इसी बात की तनख़्वाह तो मिलती थी।
वह जानता था कि वह एक अदना सा मुलाज़िम है और पैसे-रुतबे के हाथ की कठपुतली इस दुनिया में उसकी हैसियत कुछ भी नहीं है। लेकिन साथ ही एक अनुभवी इंसान के रूप में वो ये भी जानता था कि दुनिया अच्छी तभी रहेगी जब उसे अच्छा रखने की कोशिश की जाएगी। और ये कोशिश कोई भी कर सकता है। एक कई गज़ लंबी चादर जब फटने लग जाती है तो बित्ते -भर की सुई उसे सिल सकती है।
कुछ दिन बीते और बात आई-गयी हो गयी।  सब अपने-अपने कामों में लगे रहे और समय अपनी चाल से चलता रहा।
आज होली का त्यौहार था। शहर-भर रंगों की मस्ती और उल्लास के शोर-शराबे में डूबा हुआ था। जगह-जगह पर झुण्ड बना कर लोग होली खेल रहे थे। वैसे तो बड़ों की होली बड़ों के साथ और छोटों की छोटों के साथ ही जम रही थी पर साहब लोगों के बंगले पर हर छोटा-बड़ा आ रहा था।
साहब और मेमसाहब बार-बार बाहर आकर हर-एक से मिलते थे। बड़े लोग उनसे गले मिलते,रंग खेलते और मुंह मीठा करते, तथा छोटे लोग उन्हें हाथ जोड़ते, पाँव छूते और आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ जाते।
इतने बड़े त्यौहार पर हर मुलाज़िम अपने अफसर की देहरी छूना चाहता था।
माली रामप्रसाद भी घर से निकल कर पहले बंगले पर ही आया। वहअच्छी तरह जानता था कि साहब के बंगले पर उस जैसे छोटे कर्मचारी के लिए रंग-रोगन का कोई काम नहीं है,उसे तो बस साहब लोगों को सलाम बजा  कर ही आना है, उसने फिर भी थोड़ा सा रंग अपनी जेब में डाल लिया।
ये रंग भी कोई ऐसा-वैसा रंग नहीं था,बल्कि गहरा काला बदबूदार रंग था जिसे गली के लड़कों ने वार्निश और तारकोल से तैयार किया था। एक बार कहीं लग जाये तो महीनों इसके छूटने के आसार नहीं थे। पिछले साल तक तो वह खुद लड़कों को ऐसे रंग से न खेलने की चेतावनी और समझाइश देता रहा था मगर इस बार स्वयं एक लड़के से मांग कर ये रंग एक फॉयल वाले छोटे पाउच में रख लाया।
     
      
       
                 

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