सोमवार, 5 सितंबर 2016

मंगल ग्रह के जुगनू - 3

खूब ज़ोर से बारिश हो रही थी। बादलों को बरसते हुए कई घंटे बीत चुके थे, पर न जाने उनके मटके में कितना पानी था, उँडेले ही जा रहे थे।
बच्चे खेलना छोड़ कर घरों के भीतर तो आ गए थे, पर वर्षा का आनंद ही कुछ ऐसा था कि भीतर बैठ कर उनका मन नहीं लग रहा था।  खिड़कियों से झांकते सभी इस इंतज़ार में थे कि बारिश रुके तो फिर से धमाचौकड़ी मचाने घर से बाहर निकलें।
लेकिन जैसे-जैसे पानी बरसता था, चारों ओर सड़कों और मैदानों में पानी के तालाब से बनते जाते थे।
शायद श्रीहान और सुयश को मौसम के इस मिजाज़ का पूर्वानुमान पहले ही हो गया था इसी से उन्होंने अपनी साइकिलों के लिए एक छोटा सा गैरेज बना लिया था।
दोनों में से जो भी पहले आता उसे अपनी साइकिल भीतर की ओर रखनी पड़ती। जो देर से आकर बाद में रखता उसकी बाहर की ओर। मज़े की बात ये थी कि दोनों अक्सर साथ-साथ ही वापस घर आते, लेकिन दोनों ही ये कोशिश करते थे कि पीछे आकर अपनी साइकिल बाहर की ओर ही रखें ताकि सुबह पहले उसे निकाला जा  सके। कभी-कभी रात को खाना खाने के बाद भी यदि साइकिल पर घूमने का मन हो तो आराम से  लेकर सड़क पर आया जा  सकता था।
साइकिल गैरेज की छत की ओर एक छोटा सा छेद भी बनाया गया था, जिस से कभी-कभी साइकिल की चाबी वहां रखी जा सके।
एक ईंट हटा कर बनाया गया यह चाबी घर इतना सुन्दर था कि सामने के पेड़ पर रहने वाली गिलहरी का मन तो उसे देख कर ललचाता ही रहता था। वह चाहती थी कि उस चाबी घर को वह अपना रहने का कमरा बना ले। पेड़ के ऊबड़-खाबड़ तने पर सोने से गिलहरी की कमर दुखती थी। बढ़िया पक्के ईंट के फर्श पर सोने का तो आनंद ही निराला था। गिलहरी ने एक दिन खिड़की से खुद देखा था कि बाबा रामदेव टीवी पर पक्के फ़र्श पर सोने के कई लाभ बता रहे थे।
समस्या ये थी कि वहां श्रीहान और सुयश कभी-कभी अपनी चाबियाँ रखा करते थे। गिलहरी डरती थी कि वह आराम से वहां बैठी हो और उसी समय कोई आ जाये तो उसे दुम दबा कर भागना पड़े।
                          

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