रविवार, 16 अक्टूबर 2016

प्रोटोकॉल
जाड़े के दिनों में पेड़-पौधों को पानी की बहुत ज़्यादा ज़रूरत नहीं रहती। तापमान कम रहने से वातावरण की नमी जल्दी नहीं सूखती। बल्कि इस मौसम में खिलते फूलों को तो हल्की-हल्की गुलाबी धूप ही ज़्यादा सुहाती है। इसलिए माली रामप्रसाद काम के तनाव में नहीं था।
वह दो-चार खर-पतवार के तिनके इधर-उधर करके,पानी का पाइप क्यारियों में छोड़ता और हथेली पर खाज करता हुआ बरामदे में काम कर रहे लड़के धनराज के पास आ बैठता। सर्दियों में हाथ बार-बार सूखा -गीला करते रहने से हथेली की त्वचा ख़ुश्की से खुजलाने लग जाती थी।  लगता था जैसे बदन पर से उम्र की परतें उतर रही हों।
धनराज कम उम्र का लड़का था, इसलिए उस पर मौसम का कोई असर नहीं था। वह मुस्तैदी से काम किये जा रहा था।
-तेरी उम्र कितनी है? रामप्रसाद ने पूछ ही लिया।
-क्यों? धनराज ने एकाएक हाथ रोक कर पूछा।
उसके सुर की तल्खी से रामप्रसाद सकपका गया। हड़बड़ा कर बोला-सरकारी नौकरी तो कम से कम अठारह साल में मिलती है न, तू हो गया ?
लड़का थोड़ा घूर कर अप्रसन्नता से रामप्रसाद को देखता रहा, फिर लापरवाही से एक ओर थूक कर बोला- किसको मिली है नौकरी?
रामप्रसाद असमंजस में पड़ कर चुप हो गया और धनराज को दीवार पर टिकी छैनी पर हथौड़े का वार करते हुए देखने लगा।
दरअसल माली रामप्रसाद की मोटी बुद्धि यही कहती थी कि इतने बड़े सरकारी बंगले में काम करने आया आदमी सरकारी नौकर ही तो होगा। उसने सोलह-सत्रह साल के लड़के को काम करते देखा तो सहज ही पूछ लिया।
खुद रामप्रसाद को भी तो तनख़ा सरकारी खजाने से ही मिलती थी।
ये बात अलग थी कि उसकी तैनाती बरसों से इसी बंगले पर थी। उसे नहीं पता था कि उसका वेतन कहाँ से आता है, कौन लाता है, कैसे लाता है, उसे तो बस हर महीने बंगले में रहने वाले साहब का कोई मातहत गिन कर पैसे पकड़ा जाता था और चील-कव्वे जैसे उसके दस्तखत ले जाता था।
अनपढ़ रामप्रसाद को बीज बोकर उसका दरख़्त बना देना तो आसान लगता था पर दस्तखत करने में पसीना आ जाता था।
इन बरसों में उसके देखते-देखते कई साहब लोग बदल कर जा चुके थे। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन से साहब आये, कौन से गए।उसका काम तो बंगले को गुलज़ार रखने का था। उसमें वो कोई कोताही नहीं करता था।
कई बार ऐसा भी हुआ कि एक साहब के जाने और दूसरे के आने के बीच समय का लंबा अंतराल रहा। लेकिन रामप्रसाद ने खाली बंगले की भी कोई गुल-पत्ती कभी लापरवाही के चलते मुरझाने नहीं दी।    
                     

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