[अंत की 25 पंक्तियों से पहले-]
इंसान जीवनभर अपने बचपन को पकड़े रहना चाहता है, किन्तु आर्यन ने बचपन तो क्या, किशोरावस्था तक को जैसे तिलांजलि दे डाली। उसका मन अब बच्चों में नहीं लगता था। वह एकाएक जैसे बड़ा हो गया था। शायद उसके माँ-बाप के बचपने की सजा उसे मिल रही थी। उनकी मानसिकता परिपक्व होने को तैयार नहीं थी और इसके बदले में वयोवृद्धता की गंभीरता नन्हे आर्यन पर आ गिरी थी।
वह स्वभाव से चिड़चिड़ा हो चला था।
उसके मित्र जब अपनी किसी गर्लफ्रेंड को लेकर कोई हल्का-फुल्का बालसुलभ मज़ाक करते तो वह तिलमिला कर व्यंग्योक्ति करने से नहीं चूकता। उसे लगता कि औरत- मर्द का आकर्षण महज़ एक छलावा है। एक दिखावा।
लड़कियों की हर बात पर हमेशा कटाक्ष करने की उसकी आदत इतनी कड़वी बनने लगी कि कभी-कभी उसका कोई दोस्त कह देता-"ओए तू कहीं 'गे' तो नहीं है,छोरियों को देख के कभी खुश ही नहीं होता?"
आर्यन इस से और भी बिफ़र जाता।
उसका सबसे अच्छा दोस्त दिव्यांश सब कुछ जानता था, और वास्तव में उसके लिए चिंतित रहता था। इसलिए वही बाकी दोस्तों को समझा-बुझा कर आर्यन का पक्ष लेता।
वह कभी-कभी आर्यन को भी समझाता कि ज़िन्दगी बहुत बड़ी है, इसमें ढेरों समस्याएँ आती-जाती हैं, इसलिए किसी एक ही समस्या की खूँटी पर सारी ज़िन्दगी टांग देना बुद्धिमानी नहीं है। यह संवाद शायद दिव्यांश ने अपने मम्मी-पापा से उस समय सुना था जब वह आर्यन की समस्या पर आपस में बातचीत कर रहे थे।
पत्र -पत्रिकाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर छपने वाले कॉलम आर्यन विशेष रूप से पढ़ता था। उसे लगता कि शायद काले आखरों के ढेर में उसे कोई मोती-माणिक मिल जाये।
एक बार उसके मन में ये ख्याल भी आया कि वह स्वयं अपनी समस्या लिख कर किसी मनोवैज्ञानिक या डॉक्टर से पूछे।
एक दिन लायब्रेरी में दोपहर को अकेले बैठे हुए उसे दोपहर का एक अख़बार मिल गया। उसे पढ़ते-पढ़ते उसका ध्यान एक ऐसे कॉलम की ओर गया जिसमें पाठकों के कुछ अजीबो-गरीब सवाल और उनके सटीक उत्तर दिए गए थे। वह चोरी-छिपे सबकी निगाहें बचा कर उन्हें पढ़ने लगा, एक महिला ने लिखा था-"मेरे पति मर्चेंट नेवी की नौकरी में होने के कारण कई-कई महीने घर नहीं आ पाते,ऐसे में मेरा संपर्क घर में पिज़्ज़ा की डिलीवरी करने आने वाले एक युवक से हो गया है, वह अब कभी-कभी मुझसे शारीरिक सम्बन्ध भी बनाने लगा है, मैं क्या करूँ,क्या यह उचित है?"
इससे पहले कि आर्यन प्रश्न का उत्तर पढ़ता, उसका सर भयानक दर्द से छटपटाने लगा, उसने अखबार को मरोड़ कर एक ओर फेंका और लायब्रेरी से निकल गया।
वह दिनभर अनमना सा रहा। उसने दिनभर किसी से बात भी नहीं की। किन्तु अगले दिन वह जब लायब्रेरी गया तो उसी पुराने अखबार को चोर-नज़रों से तलाशता रहा। अखबार लेकर वह कोने की मेज पर अकेला आ बैठा और उसे पढ़ने लगा। लिखा था-"यदि आप या आपके पति एक दूसरे को पूर्ण तृप्ति नहीं दे पाते हों तो कानून आपके विवाह के बावजूद आपको अलग-अलग रह कर सम्मानपूर्ण जीवन बिताने के रास्ते सुझा सकता है,किन्तु साथ रह कर एक दूसरे केअधिकार किसी तीसरे को यूँ देना, क्या आपको शोभा देता है, ये आपकी अंतरआत्मा ही बेहतर बता सकती है !"
उसदिन के बाद से दिव्यांश ही नहीं, बल्कि आर्यन के और दोस्तों ने भी नोट किया कि आर्यन का आत्मविश्वास धीरे-धीरे वापस लौटने लगा है और वह अब पहले की तरह अलग-थलग नहीं रहता। एक बड़ा परिवर्तन उसमें ये दिखाई दिया कि पहले वह जहाँ बड़ा होकर डॉक्टर बनने की बात किया करता था, अब वह कानून पढ़ने की बात किया करता है।
उसके कुछ मित्रों ने तो उसे काले कोट वाले साहब कहना भी शुरू कर दिया था।
इंसान जीवनभर अपने बचपन को पकड़े रहना चाहता है, किन्तु आर्यन ने बचपन तो क्या, किशोरावस्था तक को जैसे तिलांजलि दे डाली। उसका मन अब बच्चों में नहीं लगता था। वह एकाएक जैसे बड़ा हो गया था। शायद उसके माँ-बाप के बचपने की सजा उसे मिल रही थी। उनकी मानसिकता परिपक्व होने को तैयार नहीं थी और इसके बदले में वयोवृद्धता की गंभीरता नन्हे आर्यन पर आ गिरी थी।
वह स्वभाव से चिड़चिड़ा हो चला था।
उसके मित्र जब अपनी किसी गर्लफ्रेंड को लेकर कोई हल्का-फुल्का बालसुलभ मज़ाक करते तो वह तिलमिला कर व्यंग्योक्ति करने से नहीं चूकता। उसे लगता कि औरत- मर्द का आकर्षण महज़ एक छलावा है। एक दिखावा।
लड़कियों की हर बात पर हमेशा कटाक्ष करने की उसकी आदत इतनी कड़वी बनने लगी कि कभी-कभी उसका कोई दोस्त कह देता-"ओए तू कहीं 'गे' तो नहीं है,छोरियों को देख के कभी खुश ही नहीं होता?"
आर्यन इस से और भी बिफ़र जाता।
उसका सबसे अच्छा दोस्त दिव्यांश सब कुछ जानता था, और वास्तव में उसके लिए चिंतित रहता था। इसलिए वही बाकी दोस्तों को समझा-बुझा कर आर्यन का पक्ष लेता।
वह कभी-कभी आर्यन को भी समझाता कि ज़िन्दगी बहुत बड़ी है, इसमें ढेरों समस्याएँ आती-जाती हैं, इसलिए किसी एक ही समस्या की खूँटी पर सारी ज़िन्दगी टांग देना बुद्धिमानी नहीं है। यह संवाद शायद दिव्यांश ने अपने मम्मी-पापा से उस समय सुना था जब वह आर्यन की समस्या पर आपस में बातचीत कर रहे थे।
पत्र -पत्रिकाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर छपने वाले कॉलम आर्यन विशेष रूप से पढ़ता था। उसे लगता कि शायद काले आखरों के ढेर में उसे कोई मोती-माणिक मिल जाये।
एक बार उसके मन में ये ख्याल भी आया कि वह स्वयं अपनी समस्या लिख कर किसी मनोवैज्ञानिक या डॉक्टर से पूछे।
एक दिन लायब्रेरी में दोपहर को अकेले बैठे हुए उसे दोपहर का एक अख़बार मिल गया। उसे पढ़ते-पढ़ते उसका ध्यान एक ऐसे कॉलम की ओर गया जिसमें पाठकों के कुछ अजीबो-गरीब सवाल और उनके सटीक उत्तर दिए गए थे। वह चोरी-छिपे सबकी निगाहें बचा कर उन्हें पढ़ने लगा, एक महिला ने लिखा था-"मेरे पति मर्चेंट नेवी की नौकरी में होने के कारण कई-कई महीने घर नहीं आ पाते,ऐसे में मेरा संपर्क घर में पिज़्ज़ा की डिलीवरी करने आने वाले एक युवक से हो गया है, वह अब कभी-कभी मुझसे शारीरिक सम्बन्ध भी बनाने लगा है, मैं क्या करूँ,क्या यह उचित है?"
इससे पहले कि आर्यन प्रश्न का उत्तर पढ़ता, उसका सर भयानक दर्द से छटपटाने लगा, उसने अखबार को मरोड़ कर एक ओर फेंका और लायब्रेरी से निकल गया।
वह दिनभर अनमना सा रहा। उसने दिनभर किसी से बात भी नहीं की। किन्तु अगले दिन वह जब लायब्रेरी गया तो उसी पुराने अखबार को चोर-नज़रों से तलाशता रहा। अखबार लेकर वह कोने की मेज पर अकेला आ बैठा और उसे पढ़ने लगा। लिखा था-"यदि आप या आपके पति एक दूसरे को पूर्ण तृप्ति नहीं दे पाते हों तो कानून आपके विवाह के बावजूद आपको अलग-अलग रह कर सम्मानपूर्ण जीवन बिताने के रास्ते सुझा सकता है,किन्तु साथ रह कर एक दूसरे केअधिकार किसी तीसरे को यूँ देना, क्या आपको शोभा देता है, ये आपकी अंतरआत्मा ही बेहतर बता सकती है !"
उसदिन के बाद से दिव्यांश ही नहीं, बल्कि आर्यन के और दोस्तों ने भी नोट किया कि आर्यन का आत्मविश्वास धीरे-धीरे वापस लौटने लगा है और वह अब पहले की तरह अलग-थलग नहीं रहता। एक बड़ा परिवर्तन उसमें ये दिखाई दिया कि पहले वह जहाँ बड़ा होकर डॉक्टर बनने की बात किया करता था, अब वह कानून पढ़ने की बात किया करता है।
उसके कुछ मित्रों ने तो उसे काले कोट वाले साहब कहना भी शुरू कर दिया था।
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