tag:blogger.com,1999:blog-8125760202104700022024-03-13T09:18:45.066-07:00Tere Shahar Ke Mere Log/तेरे शहर के मेरे लोग इसमें आप राही सहयोग संस्थान की साहित्यिक योजनाएं देख सकेंगेPrabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.comBlogger19125tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-21431760073255685322017-01-09T08:00:00.001-08:002017-01-09T08:00:58.609-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[अंत की 25 पंक्तियों से पहले-]<br />
इंसान जीवनभर अपने बचपन को पकड़े रहना चाहता है, किन्तु आर्यन ने बचपन तो क्या, किशोरावस्था तक को जैसे तिलांजलि दे डाली। उसका मन अब बच्चों में नहीं लगता था। वह एकाएक जैसे बड़ा हो गया था। शायद उसके माँ-बाप के बचपने की सजा उसे मिल रही थी। उनकी मानसिकता परिपक्व होने को तैयार नहीं थी और इसके बदले में वयोवृद्धता की गंभीरता नन्हे आर्यन पर आ गिरी थी। <br />
वह स्वभाव से चिड़चिड़ा हो चला था। <br />
उसके मित्र जब अपनी किसी गर्लफ्रेंड को लेकर कोई हल्का-फुल्का बालसुलभ मज़ाक करते तो वह तिलमिला कर व्यंग्योक्ति करने से नहीं चूकता। उसे लगता कि औरत- मर्द का आकर्षण महज़ एक छलावा है। एक दिखावा। <br />
लड़कियों की हर बात पर हमेशा कटाक्ष करने की उसकी आदत इतनी कड़वी बनने लगी कि कभी-कभी उसका कोई दोस्त कह देता-"ओए तू कहीं 'गे' तो नहीं है,छोरियों को देख के कभी खुश ही नहीं होता?"<br />
आर्यन इस से और भी बिफ़र जाता। <br />
उसका सबसे अच्छा दोस्त दिव्यांश सब कुछ जानता था, और वास्तव में उसके लिए चिंतित रहता था। इसलिए वही बाकी दोस्तों को समझा-बुझा कर आर्यन का पक्ष लेता।<br />
वह कभी-कभी आर्यन को भी समझाता कि ज़िन्दगी बहुत बड़ी है, इसमें ढेरों समस्याएँ आती-जाती हैं, इसलिए किसी एक ही समस्या की खूँटी पर सारी ज़िन्दगी टांग देना बुद्धिमानी नहीं है। यह संवाद शायद दिव्यांश ने अपने मम्मी-पापा से उस समय सुना था जब वह आर्यन की समस्या पर आपस में बातचीत कर रहे थे। <br />
पत्र -पत्रिकाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों को लेकर छपने वाले कॉलम आर्यन विशेष रूप से पढ़ता था। उसे लगता कि शायद काले आखरों के ढेर में उसे कोई मोती-माणिक मिल जाये। <br />
एक बार उसके मन में ये ख्याल भी आया कि वह स्वयं अपनी समस्या लिख कर किसी मनोवैज्ञानिक या डॉक्टर से पूछे। <br />
एक दिन लायब्रेरी में दोपहर को अकेले बैठे हुए उसे दोपहर का एक अख़बार मिल गया। उसे पढ़ते-पढ़ते उसका ध्यान एक ऐसे कॉलम की ओर गया जिसमें पाठकों के कुछ अजीबो-गरीब सवाल और उनके सटीक उत्तर दिए गए थे। वह चोरी-छिपे सबकी निगाहें बचा कर उन्हें पढ़ने लगा, एक महिला ने लिखा था-"मेरे पति मर्चेंट नेवी की नौकरी में होने के कारण कई-कई महीने घर नहीं आ पाते,ऐसे में मेरा संपर्क घर में पिज़्ज़ा की डिलीवरी करने आने वाले एक युवक से हो गया है, वह अब कभी-कभी मुझसे शारीरिक सम्बन्ध भी बनाने लगा है, मैं क्या करूँ,क्या यह उचित है?"<br />
इससे पहले कि आर्यन प्रश्न का उत्तर पढ़ता, उसका सर भयानक दर्द से छटपटाने लगा, उसने अखबार को मरोड़ कर एक ओर फेंका और लायब्रेरी से निकल गया।<br />
वह दिनभर अनमना सा रहा। उसने दिनभर किसी से बात भी नहीं की। किन्तु अगले दिन वह जब लायब्रेरी गया तो उसी पुराने अखबार को चोर-नज़रों से तलाशता रहा। अखबार लेकर वह कोने की मेज पर अकेला आ बैठा और उसे पढ़ने लगा। लिखा था-"यदि आप या आपके पति एक दूसरे को पूर्ण तृप्ति नहीं दे पाते हों तो कानून आपके विवाह के बावजूद आपको अलग-अलग रह कर सम्मानपूर्ण जीवन बिताने के रास्ते सुझा सकता है,किन्तु साथ रह कर एक दूसरे केअधिकार किसी तीसरे को यूँ देना, क्या आपको शोभा देता है, ये आपकी अंतरआत्मा ही बेहतर बता सकती है !"<br />
उसदिन के बाद से दिव्यांश ही नहीं, बल्कि आर्यन के और दोस्तों ने भी नोट किया कि आर्यन का आत्मविश्वास धीरे-धीरे वापस लौटने लगा है और वह अब पहले की तरह अलग-थलग नहीं रहता। एक बड़ा परिवर्तन उसमें ये दिखाई दिया कि पहले वह जहाँ बड़ा होकर डॉक्टर बनने की बात किया करता था, अब वह कानून पढ़ने की बात किया करता है। <br />
उसके कुछ मित्रों ने तो उसे काले कोट वाले साहब कहना भी शुरू कर दिया था। </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-15031983421496664912017-01-08T00:30:00.000-08:002017-01-08T02:55:59.596-08:00[5]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
आर्यन के इस कदम से कुछ दिन के लिए घर का ये बवंडर थम गया। मम्मी ने आर्यन का कुछ ज़्यादा ही ख्याल रखना शुरू कर दिया। <br />
लेकिन आर्यन ने ये भी अनुभव किया कि मम्मी-पापा के बीच की कड़वाहट मिटी नहीं है। वे एक दूसरे से खिंचे -खिंचे ही रहते थे। अब उसे लगने लगा था कि उसे भी मम्मी-पापा को इकठ्ठा देखने की कामना से ज़्यादा अपने पैरों पर खड़ा होने की ओर ध्यान देना चाहिए। वह घर-परिवार की ओर से उदासीन होता चला जा रहा था। <br />
उसे अपनी हिंदी की किताब में लिखा रहीम का वह दोहा भली भांति समझ में आने लगा था जिसमें रहीम ने बेर और केर,यानी बेर और केले के पेड़ के एक साथ न रह पाने की बात कही थी।आर्यन को लगता था कि वह भी ऐसे बाग़ का फूल है जहाँ बेर और केले का पेड़ एक साथ उगा हुआ है।<br />
एक का गात बेहद मुलायम, तो दूसरे के बदन पर कांटे।<br />
वह समय से पहले ही समझदार होता जा रहा था। अब उसे ऐसे ख्याल बचकाने लगते थे कि वह जबरन मम्मी को किसी और तरफ ध्यान देने से रोके। अथवा उनके किसी काल्पनिक संभावित मित्र का पता लगाए। उसने पापा पर भी अकारण तरस खाना छोड़ दिया था।<br />
वह अब पहले की तरह खुशमिज़ाज़ और सबसे दोस्ताना व्यवहार रखने वाला आर्यन न रहा था जिसके एक बार कहने मात्र से उसका दोस्त उसके साथ घर पर बिना पूछे रातभर बाहर रुकने को तैयार हो जाये। बल्कि इसके उलट वह अब एक गुमसुम सा, अपने आप में खोया रहने वाला बच्चा बनता जा रहा था। और सच पूछो तो बच्चा भी कहाँ, वह तो अब किसी अकेले बैठे दार्शनिक सा अलग-थलग रहने वाला आर्यन बन गया था। उसके दोस्त भी हैरान थे उसके इस व्यवहार पर।<br />
एक दिन तो वह हैरान रह गया जब उसने एक किताब में पढ़ा कि स्त्री और पुरुष यदि एक दूसरे से संतुष्ट न रहें तो प्रकृति किसी न किसी रूप में उन्हें हमेशा के लिए अलग कर देने की तैयारी करने लगती है। वह सिहर उठा। उसका मन स्कूल की लायब्रेरी में न लगा, वह जैसे ही बाहर आया तो देखा कि विद्यालय में भगदड़ सी मची हुई है। थोड़ी ही देर में स्कूल की छुट्टी कर दी गयी। अफरा -तफरी मची हुई थी,सब एक दूसरे से पूछ रहे थे, किसी को पता न था कि हुआ क्या है। <br />
तभी हड़बड़ाते हुए दिव्यांश ने आकर बताया कि अभी-अभी साइंस लैब में एक दुर्घटना हो गयी। दो लड़के बुरी तरह ज़ख़्मी हुए थे। उन्हें हस्पताल ले जाया गया था। इसी से छुट्टी की घोषणा हो गयी थी।<br />
दिव्यांश बता रहा था कि लैब में काम करते हुए कैमेस्ट्री टीचर ने दो केमिकल सॉल्यूशंस रखे थे और वे कुछ बता ही रहे थे,कि मोबाइल पर फोन आ गया। वह बात करते-करते बाहर जाते हुए बच्चों से कह गए कि इन्हें मिलाना मत। पर उनकी अनुपस्थिति में एक शरारती लड़के ने सामने पड़ी प्लेट में दोनों को थोड़ा सा मिला दिया। बाकी लड़के भी तमाशा देखने के जोश में चुपचाप बैठे देखते रहे,किसी ने उसे ऐसा करने से रोका नहीं।<br />
देखते ही देखते ज़ोरदार धमाका हुआ और किसी बम के फटने की सीआवाज़ हुई। अध्यापक पलट कर दौड़े किन्तु तब तक सामने बैठे दो लड़के बुरी तरह घायल हो चुके थे।<br />
उस रात खाना खाकर आर्यन जब सोया तो उसे बहुत गहरी नींद आयी। उसने नींद में ही सपना देखा कि वह आगे पढाई करने के लिए किसी बड़े शहर के हॉस्टल में चला गया है। उसने सपने में ही देखा कि होस्टल में उससे मिलने के लिए एक रविवार को पापा आते हैं और दूसरे को मम्मी। <br />
इतना ही नहीं, उसके कमरे में दो दरवाजे हैं, मम्मी हमेशा आगे वाले दरवाज़े से आती हैं, और पापा पीछे वाले दरवाज़े से.... इस खुशनुमा हवादार कमरे में खिड़कियां भी दो हैं, एक खिड़की से उसे गहराई रात में चाँद दिखाई देता है, दूसरे से दिन उगते ही सूरज झाँका करता है।<br />
पूरी कायनात एकसाथ देखने की ज़िद अब वो छोड़ चुका है। <br />
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Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-63441128838571354012017-01-07T08:12:00.000-08:002017-01-07T23:53:00.231-08:00[4]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
स्कूल के फर्श पर टांग फैला कर अधलेटे आर्यन को नींद आ गयी। थोड़ी ही देर में वह गहरी नींद सो गया। लेकिन उसे शायद नींद के आगोश में भी अपनी उलझन से निजात नहीं मिली थी। उसने सपने में देखा कि एक बूढा आदमी लड़खड़ाता हुआ उसकी ओर चला आ रहा है। पहले उसे लगा कि शायद पापा ही उसे ढूंढते हुए यहाँ तक चले आये हैं। लेकिन वे पापा नहीं थे, ये इत्मीनान उसे हो गया। कंधे पर बोझ सा उठाये यह आदमी डगमगाते हुए इस तरह चल रहा था जैसे बर्फ पर चल रहा हो।<br />
नज़दीक आने पर उस आदमी ने बताया कि वह इस बीहड़ रास्ते पर एक दो घोड़ों की बग्घी पर सवार होकर गुज़र रहा था, कि अचानक उसके दोनों घोड़े दो अलग-अलग दिशाओं में ओझल हो गए। अब वह बेदम होकर उन्हें ढूंढता फिर रहा है। <br />
आर्यन नींद से हड़बड़ा कर जाग उठा। वह पसीने से नहाया हुआ था, उसका दोस्त दिव्यांश लौट कर नहीं आया था। उसे भूख भी लगी थी। उसे घर की याद ज़ोर से सताने लगी। उसका मनोबल भी धीरे- धीरे टूटने लगा था। अब उसे लग रहा था कि वह भी अब घर लौट जाये। लेकिन इतनी रात को अकेले घर लौटना भी आसान नहीं था। इस समय उसे कोई सवारी भी आसानी से मिलने वाली नहीं थी। <br />
वह ऊहापोह में ही था कि सहसा उसे किसी की पदचाप सुनाई दी। वह बुरी तरह डर गया। सुनसान बिल्डिंग में इस समय कौन हो सकता है? चौकीदार होने की बात ने भी उसे राहत नहीं दी। यदि एकाएक चौकीदार सामने आ भी गया तो वह अचानक उस से क्या कहेगा?<br />
तभी सामने से उसे दिव्यांश आता दिखाई दिया। उसकी जान में जान आई। आँखें पनीली हो आने पर भी चमकने लगीं। दिव्यांश ने 'सॉरी' बोलते हुए उसे बताया कि वह उन दोनों के लिए न केवल खाना ले आया है, बल्कि अपनी मम्मी को सारी बात बता भी आया है। आर्यन को जैसे राहत की एक और किश्त मिल गयी।<br />
दोनों मित्रों ने एक साथ बैठ कर खाना खाया।<br />
इस से पहले कि दोनों खाना ख़त्म करके पानी पीने उठते, धड़धड़ाते हुए दिव्यांश के पापा वहां आगये। मेन गेट पर रहने वाला गार्ड उनके साथ था। थोड़ी ही देर में दिव्यांश के पापा का स्कूटर दोनों बच्चों को बैठाये सुनसान सड़क पर दौड़ रहा था। <br />
दिव्यांश ने फ़ोन करके आर्यन के घर पर भी खबर कर दी थी,और जब वे लोग दिव्यांश के घर पहुंचे, आर्यन के पिता भी उन लोगों का इंतज़ार करते मिले। <br />
उन्होंने दिव्यांश के पिता का आभार माना और कृतज्ञ होकर आर्यन को अपने साथ ले चले। <br />
इतनी रात को आर्यन को देख कर उसकी मम्मी की भी रुलाई फूट पड़ी, वे शाम से ही सकते से में थीं और बिना कुछ खाये-पिए बैठी थीं। <br />
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Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-32448052569584316132017-01-07T07:38:00.002-08:002017-01-07T07:38:22.990-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
दोनों की बातों में ढेर सारा समय गुज़र गया, दोनों घर को तो मानो भूल ही बैठे थे। उनकी सोच में दूर-दूर तक ये चिंता नहीं व्याप रही थी, कि शाम को उन्हें घर न पाकर घरवालों पर क्या बीत रही होगी। दोनों को जैसे एक दूसरे का संबल था।<br />
कुछ देर बाद दिव्यांश वॉशरूम जाने की बात कह कर उठा और फुर्ती से बाहर की ओर निकल गया। <br />
अपने ही ख्यालों में खोये आर्यन का ध्यान इस बात पर भी नहीं जा पाया, कि वह वॉशरूम जाते समय भी अपना स्कूल बैग कंधे पर ले गया है। <br />
एक क्षण बाद आर्यन चौंका किन्तु दोस्त पर भरोसा करने के अलावा कोई चारा भी नहीं था। <br />
लेकिन जैसे-जैसे समय गुज़रा,इंतज़ार करते आर्यन पर भीतरी निराशा और अनजाना भय डेरा जमाने लगे। उसे मन ही मन दाल में कुछ काला नज़र आने लगा। तमाम घबराहट ने उसे किंकर्तव्यविमूढ़ बना दिया। उसे समझ में नहीं आया कि उसे नींद घेर रही है या बेहोशी। <br />
वह ज़मीन पर ही टाँगें फैला कर अधलेटा सा हो गया। <br />
उसकी सोच में सुबह की मम्मी-पापा के बीच की जहरीली बहस उभरने लगी। मानो सच में ऐसा हो जाये कि उसके माता-पिता अलग होकर रहने लग जाएँ तो उसका क्या होगा?<br />
एक पल को उसकी आँखों में वह दिन भी कौंध गया जब उसके पिता ने ज़िन्दगी समाप्त करने की चेष्टा की थी। उसका बचपन बदनसीबी के किस उजाड़ किनारे को छूकर लौट आया था।<br />
ऐसा क्यों होता है कि जिंदगी भर के साथ की धर्मप्राण आयोजना करके भी दो लोग साथ नहीं रह पाते? क्यों ये दो किनारे एकाकार होने की जगह अलग होने के लिए मचलने लग जाते हैं? उसका बालमन ये समझने में नाकाम था कि उसे जन्म देने से पहले ही मम्मी-पापा ने एक दूसरे को समझ कर अपने फासले क्यों नहीं मिटा लिए?<br />
वह अब इतना छोटा भी नहीं था कि "बच्चे भगवान की देन होते हैं" जैसी बहलाने-फुसलाने की बातों पर यकीन करे। उसने जनरल साइंस की किताब में स्त्री-पुरुष की वो शारीरिक क्रिया सचित्र देख-पढ़ रखी थी जिससे बच्चे का जन्म होता है।<br />
उसे दिव्यांश के मुंह से अकस्मात निकली उस आशंका पर भी यकीन होने लगा कि ज़रूर मम्मी उसके सीधे-सादे पापा से ज़्यादा किसी और को पसंद करने लगी होंगी, जिसके कारण वह पापा की अवहेलना करती रहती हैं। वह खुद अपनी आखों से देख चुका था कि कई बार मम्मी का क्रोध अकारण होता था, और पापा निरीह से बन कर सफाई देने में ही खर्च होते रहते थे। -छी ! तो क्या मम्मी वह सब किसी और के साथ कर रही थीं? उसे पापा पर दया सी आने लगी।<br />
पर मम्मी को ये तो सोचना चाहिए कि क्या उनके पास अपनी ज़िन्दगी सँवारने के बदले मेरी और पापा की जिंदगी को नरक बना देने का अधिकार है? <br />
आर्यन ने ख़बरों में कई बार देखा-सुना था कि विदेशों में तो छोटे-छोटे बच्चे तक अपने अधिकार के लिए खून-खराबा कर डालते हैं। वे खुद को गोली मार लेते हैं या फिर सामने वाले को मौत के घाट उतार डालते हैं। <br />
क्या वह भी अपने मित्रों की मदद से अपनी मम्मी के किसी रहस्य को जानने की कोशिश करे?<br />
लेकिन उससे क्या होगा, यदि कोई ऐसा व्यक्ति सामने आ भी गया तो क्या उसके शांत स्वभाव के पापा ऐसे शत्रु को दंड दे पाएंगे? क्या उससे सबका जीवन तहस-नहस नहीं होगा? </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-35123469972931602102017-01-07T03:52:00.002-08:002017-01-07T03:52:51.696-08:00[2]<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
पेट में थोड़ा खाना पड़ जाने के बाद आर्यन ने रोते-रोते अपने सबसे अच्छे दोस्त को जो कुछ बताया उसमें अविश्वास करने जैसा कुछ नहीं था क्योंकि पहले भी कई बार वह दिव्यांश को अपने मम्मी-पापा के बीच होने वाले झगड़ों के बारे में काफी-कुछ बता चुका था। आश्चर्य तो केवल ये था कि बात यहाँ तक पहुँच गयी? आज आर्यन के सामने पापा ने पहली बार मम्मी से ये कह दिया था कि "... अगर तुम्हें मेरी सूरत से इतनी ही नफ़रत है तो अलग घर ले लो, जहाँ मेरी परछाईं से भी दूर रह कर आराम से रह सको।"<br />
रुंधे गले से आर्यन बोलता रहा। उसने दिव्यांश को बताया-"मैं सुबह स्कूल आते समय पॉकेटमनी पापा से लेता हूँ और टिफिन मम्मी से। रात को मैथ्स का होमवर्क मम्मी करवाती हैं और सोशल साइंस का पापा। वो दोनों ये क्यों नहीं समझते कि अलग-अलग घर में रहने से उन्हें तो पूरा-पूरा घर मिल जायेगा पर मेरी दुनिया टूट जाएगी। टूटा -फूटा अपाहिज जीवन।"<br />
वह आगे और कुछ न कह सका, उसकी रुलाई फूट पड़ी। दिव्यांश ने अपने से सटा कर उसे भींच लिया।<br />
आर्यन ये देखना चाहता था कि उसके मम्मी-पापा को उसकी कितनी फ़िक्र है, इसीलिये उसने ये कड़ा कदम उठाया था। वह घर पर बिना बताये स्कूल में ही रुक गया था। पर ऐसा करते हुए वह मन ही मन डर भी रहा था इसलिए उसने अपने दोस्त दिव्यांश को भी जबरन अपने साथ रोक लिया था। <br />
इस वक्त जैसे-जैसे अँधेरा बढ़ रहा था आर्यन को अपना दोस्त अपने माँ-बाप से भी ज़्यादा हितैषी दिखाई दे रहा था। सच पूछो तो माँ-बाप हितैषी थे कहाँ? उन्हें तो बेटे के सुकून से अपने-अपने अहम ज़्यादा प्यारे थे। <br />
भावुकता में आर्यन दोस्त के सामने ये राज़ भी आहिस्ता से खोल बैठा कि घर की कलह से तंग आकर उसके पापा एक बार आत्म-हत्या की कोशिश भी कर चुके हैं। वे एक रात झगड़ा होने के बाद ढेर सारी नींद की गोलियाँ खाकर सो गए थे।<br />
-"झगड़ा होता किस बात पर है?" दिव्यांश ने किसी बड़े-बूढ़े की भांति जानना चाहा। मानो झगड़े का कारण पता लगने पर वह उसे मिटा ही छोड़ेगा। <br />
-"क्या पता, पर कभी-कभी मुझे लगता है कि गलती पापा की नहीं होती, बल्कि मम्मी ही उन्हें उल्टा-सीधा बोलकर उकसाती हैं।"आर्यन ने कहा। <br />
-"कहीं, .... जाने दे, जाने दे।"दिव्यांश कुछ बोलते-बोलते रुक गया। <br />
-"बोल न, क्या बोल रहा था?" आर्यन ने भोलेपन से कहा।<br />
-" नहीं मेरा मतलब था कि कहीं तेरी मम्मी का ....किसी और से ..." दिव्यांश बोलता-बोलता चुप हो गया। टीवी -सिनेमा के सामने घंटों गुज़ारते बच्चों के जेहन में ये सब बातें आना कोई अजूबा तो नहीं था ,पर बात क्योंकि अपने सबसे अच्छे दोस्त की थी इसलिए दिव्यांश कुछ संकोच से रुक गया।<br />
आर्यन मुंह फाड़े उसकी ओर देखता रह गया। वह मन ही मन जैसे बुझ सा गया। </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-60989588370967312552017-01-03T08:11:00.003-08:002017-01-03T08:11:23.151-08:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
और दिनों के विपरीत आर्यन छुट्टी होते ही बैग लेकर स्कूल बस की ओर नहीं दौड़ा बल्कि धीरे-धीरे चलता हुआ, क्लास रूम के सामने वाले पोर्च में रुक गया। इतना ही नहीं, उसने दिव्यांश को भी कलाई से पकड़ कर रोक लिया। झटके से रुका दिव्यांश असमंजस में पड़ कर आर्यन की ओर देखने लगा। लेकिन उसे आर्यन के चेहरे पर मज़ाक या खेल करने जैसा कोई संकेत नहीं मिला, बल्कि वह तो रोनी सूरत बनाये, पूरी गंभीरता से उसे रोक रहा था। हैरान होकर दिव्यांश ने पूछा- "क्या हुआ?"<br />
और जवाब में आर्यन रो पड़ा। <br />
-"प्लीज़ ,रुकजा न !"उसने भरे गले से ही कहा। <br />
-"अरे पर क्यों?" दिव्यांश ने कहा।<br />
-"मुझे अकेले डर लगता है।"आर्यन अपने मित्र दिव्यांश को बांह पकड़ कर वापस क्लासरूम की ओर ठेलने लगा। <br />
सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले तेरह वर्षीय दोनों किशोर, अच्छे मित्र थे, फिर भी दिव्यांश को ये सुन कर अजीब सा लगा। उसे ये समझ में नहीं आया कि आखिर शाम को स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद भी आर्यन उसे इस तरह रोक क्यों रहा है। <br />
सामने विद्यार्थियों से भरी बसें हॉर्न दे रही थीं और थोड़ी ही देर में स्कूल परिसर वीरान हो जाने वाला था। लेकिन इस सब से बेखबर आर्यन दिव्यांश को वापस क्लासरूम में ले गया। <br />
थोड़ी ही देर में बसों के धूल उड़ाते हुए निकल जाने से सन्नाटा हो गया। शिक्षकों और स्टाफ के स्कूटर व बाइक्स भी एक-एक कर ओझल होने लगीं। प्रिंसिपल साहब की कार के गेट से निकलते ही पूरे अहाते में एक मात्र गार्ड रह गया जो हाथ में चाबियों का बड़ा गुच्छा लेकर सारे कमरे बंद करने में तल्लीन था।<br />
अब दिव्यांश का माथा ठनका। उसने आर्यन को झिंझोड़ डाला।<br />
लेकिन चौकीदार के आने की आहट सुन कर आर्यन फुर्ती से टेबल के नीचे छिप गया और उसने मुस्तैदी से दिव्यांश को भी खींच कर नीचे बैठा लिया। <br />
-"देख तू मेरा बेस्ट फ्रेंड है न, मेरी बात मान..."बौखलाए हुए दिव्यांश को आर्यन ने दोस्ती का वास्ता देकर रोक लिया। चौकीदार जा चुका था,और अँधेरा घिरने लगा था।<br />
अब दोनों मित्र इत्मीनान से एक बेंच पर बैठे थे। दिव्यांश ने आर्यन का हाथ अपने हाथ में ले रखा था और ध्यान से उसकी बात सुन रहा था। <br />
सामने रखे लंचबॉक्स में सुबह का बचा खाना खाते हुए दोनों दोस्त बात कर रहे थे। दिव्यांश को लगा कि आर्यन का इरादा सुबह से ही यहाँ रुकने का था शायद इसीलिये उसने खाना भी बचा रखा था। उसे आर्यन के साथ पूरी सहानुभूति थी। तन्मयता से बात करते हुए दोनों ये भी भूल बैठे थे कि रात को घर कैसे जायेंगे? डर की जगह अब चिंता ने ले ली थी। </div>
Prabodh Kumar Govilhttp://www.blogger.com/profile/12839366183996594801noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-812576020210470002.post-34920193678211353192016-10-23T00:56:00.001-07:002016-10-23T01:14:31.789-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
[६]<br />
आम दिनों साहब के बंगले पर बाहर खड़ा संतरी हर आने-जाने वाले की तलाशी लेता था, मगर आज तो होली का त्यौहार था। आज तो झुण्ड के झुण्ड लोग साहबों की एक नज़रे-इनायत की लालसा में वहां आ-जा रहे थे। वैसे भी माली रामप्रसाद तो उसी बंगले का कामगार भी था, उसे कौन रोकता-टोकता?<br />
वह सीधे बरामदे तक पहुँच गया और साहब-मेमसाहब को आदर से हाथ जोड़कर एक ओर खड़ा हो गया। और भी लोग थे जो साहब को होली मुबारक कह रहे थे। <br />
थोड़ी ही देर में लोगों का झुण्ड पलट कर वापस गेट की ओर चल दिया,और साहब-मेमसाहब भी मुस्कराते हुए बंगले में वापस लौट गए। <br />
थोड़ी देर के लिए बरामदे में सन्नाटा हो गया। <br />
अब वहां माली रामप्रसाद के अलावा और कोई न था। संतरी भी दूर गेट के बाहर की ओर निकला हुआ था। उसके भी कुछ यार-दोस्त और मिलने वाले होली खेलने आ गए थे। <br />
जिस बंगले में माली रामप्रसाद वर्षों से काम कर रहा था, उसी में किसी चोर की तरह कांपते हाथों से उसने जेब से रंग का वह पाउच निकाला और दूसरे हाथ से पास में पड़ा एक पत्थर भी उठा लिया। <br />
जो रामप्रसाद पौधों को भी मुलायम हाथों से सहलाता हुआ सहेजता था उसने दाँत भींच कर पत्थर से साहब लोगों की नेम-प्लेट पर किसी उद्दंड शरारती युवक की तरह फुर्ती से तीन-चार वार किये। वार इतने ज़बरदस्त थे, मानो रामप्रसाद आज भाँग खाकर आया हो। देखते-देखते पीतल के चार-पांच अक्षर टूट कर नीचे गिर गए। एक-दो टूट कर टेढ़े-मेढ़े होकर वहीँ लटक गए।<br />
आनन-फ़ानन में माली रामप्रसाद ने जेब से काले रंग की पुड़िया निकाली और हाथ में रंग लेकर तख्ती के नाम पर मल दिया। गाढ़ा रंग मानो कभी न छूटने के लिए नेम-प्लेट पर चिपक गया।<br />
किसी चीते की सी फुर्ती से रामप्रसाद वापस पलटा और शान से धीरे-धीरे गेट की ओर जाने लगा। उसने नाम-पट्टी के साथ ये होली इतनी सफ़ाई के साथ खेली थी कि केवल साहब के नाम के ही सारे अक्षर टूट कर गिरे थे। रंग भी इस तरह पोता कि साहब का नाम पूरी तरह मिट गया था। <br />
अब वहां केवल मैडम का नाम शान से जगमगा रहा था।<br />
माली रामप्रसाद को लग रहा था कि जैसे उसने इस होली में अपनी सब बेटियों के साथ हुई ज़्यादती का बदला ले लिया था। <br />
वह गेट के दरवाजे से इस तरह सर उठा कर निकला मानो स्वयं भगवान नरसिंह हरिणकश्यप को चीर कर वापस लौट रहे हों। संतरी भी हैरत से माली रामप्रसाद को जाते देखता रहा। आज जाते समय रामप्रसाद ने रोज़ की तरह संतरी को सलाम भी नहीं किया था।<br />
मगर आज संतरी ने भी इसका बुरा नहीं माना। जाने दो, होली के दिन भला कैसा "प्रोटोकॉल"?<br />
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वह लड़की थी तो क्या, अपने घर में छोटी होने से लाड़-प्यार में पली थी। लाड़ क्या सिर्फ अमीर लोग ही करना जानते हैं? अपने पिता की हैसियत-भर ठाट से तो वो भी रही ही थी। तो अब ससुराल में ये उसे ज़रा भी नहीं सुहाता था कि उसे सब घर की नौकरानी समझें और दिन भर उसे घर के कामों में उलझाये रखें। इसलिए मौका मिलते ही पिता के घर चली आती थी।<br />
माली रामप्रसाद की आँखों में आंसू आ जाते थे जब बिटिया उससे पूछती थी कि आपने बेटे क्यों नहीं पैदा किये, कम से कम दूसरों की बेटियों को लेकर तो आते।<br />
माली रामप्रसाद के अंतर के जख्मों को एक तरह से मरहम सा लग जाता था जब वह देखता कि उसकी बेटियां ही नहीं,बल्कि शहर की जिलाअधिकारी तक महिला होने का मोल चुका रही है।<br />
धीरे-धीरे माली रामप्रसाद के मन में मैडम के प्रति सम्मान और स्नेह बढ़ता ही चला गया। वह जब भी ड्यूटी पर होता काम करते-करते हमेशा इसी बाबत सोचता रहता कि कैसे उसकी बेटियाँ सुखी रह सकें। वह कितना भी पिछड़ा सही, अब उसकी तीन नहीं, बल्कि चार बेटियां थीं।<br />
वह निराई,गुड़ाई,सिंचाई,रोपाई करते हुए भी हरदम यही सोचता रहता था कि उसे दुनियां को हरा-भरा खुशहाल रखने वाली फ़सल उगानी चाहिए। उसका काम यही है कि वह ज़मीन को नुक्सान पहुँचाने वाले खर -पतवार को उखाड़ कर फेंकता रहे और ऐसे पौधे बोता-उगाता रहे जिनसे सबका भला हो। उसे इसी बात की तनख़्वाह तो मिलती थी।<br />
वह जानता था कि वह एक अदना सा मुलाज़िम है और पैसे-रुतबे के हाथ की कठपुतली इस दुनिया में उसकी हैसियत कुछ भी नहीं है। लेकिन साथ ही एक अनुभवी इंसान के रूप में वो ये भी जानता था कि दुनिया अच्छी तभी रहेगी जब उसे अच्छा रखने की कोशिश की जाएगी। और ये कोशिश कोई भी कर सकता है। एक कई गज़ लंबी चादर जब फटने लग जाती है तो बित्ते -भर की सुई उसे सिल सकती है।<br />
कुछ दिन बीते और बात आई-गयी हो गयी। सब अपने-अपने कामों में लगे रहे और समय अपनी चाल से चलता रहा। <br />
आज होली का त्यौहार था। शहर-भर रंगों की मस्ती और उल्लास के शोर-शराबे में डूबा हुआ था। जगह-जगह पर झुण्ड बना कर लोग होली खेल रहे थे। वैसे तो बड़ों की होली बड़ों के साथ और छोटों की छोटों के साथ ही जम रही थी पर साहब लोगों के बंगले पर हर छोटा-बड़ा आ रहा था।<br />
साहब और मेमसाहब बार-बार बाहर आकर हर-एक से मिलते थे। बड़े लोग उनसे गले मिलते,रंग खेलते और मुंह मीठा करते, तथा छोटे लोग उन्हें हाथ जोड़ते, पाँव छूते और आशीर्वाद लेकर आगे बढ़ जाते। <br />
इतने बड़े त्यौहार पर हर मुलाज़िम अपने अफसर की देहरी छूना चाहता था। <br />
माली रामप्रसाद भी घर से निकल कर पहले बंगले पर ही आया। वहअच्छी तरह जानता था कि साहब के बंगले पर उस जैसे छोटे कर्मचारी के लिए रंग-रोगन का कोई काम नहीं है,उसे तो बस साहब लोगों को सलाम बजा कर ही आना है, उसने फिर भी थोड़ा सा रंग अपनी जेब में डाल लिया।<br />
ये रंग भी कोई ऐसा-वैसा रंग नहीं था,बल्कि गहरा काला बदबूदार रंग था जिसे गली के लड़कों ने वार्निश और तारकोल से तैयार किया था। एक बार कहीं लग जाये तो महीनों इसके छूटने के आसार नहीं थे। पिछले साल तक तो वह खुद लड़कों को ऐसे रंग से न खेलने की चेतावनी और समझाइश देता रहा था मगर इस बार स्वयं एक लड़के से मांग कर ये रंग एक फॉयल वाले छोटे पाउच में रख लाया।<br />
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[४]<br />
सब लोग सारा माजरा समझ गए, लेकिन साथ में ये भी समझ गए कि साहब लोगों के पास अगर उनकी शिकायत पहुंची तो एक-एक की ख़ैर नहीं।<br />
घर की नौकरानी ने जब अनजाने ही ये राज खोल दिया कि साहब और मेमसाहब के बीच ओहदे को लेकर तनातनी रहती है तो सबको ये भी पता चल गया कि नौकरानी काफ़ी पुरानी है और उसके तरकश में और भी कई तीर हैं। <br />
सब समय मिलते ही आते-जाते हुए उसे और कुरेदने की कोशिश करते। उसने भी इसी बहाने सब चपरासियों, ड्राइवरों और नीचे तबके के इन लोगों पर सिक्का जमाने को अपना शगल बना लिया।<br />
गेट पर तैनात, कलेक्टर साहिबा का एक संतरी दो-एक बार इन लोगों को हड़का भी चुका था।<br />
लेकिन माली रामप्रसाद के मन में उस दिन से मेमसाहब का रुतबा और भी बढ़ गया। वह दिल से उनका सम्मान पहले से भी ज़्यादा करने लगा। <br />
वह रोज़ चुनिंदा फूलों का एक शानदार गुलदस्ता तैयार करता और घर के विज़िटर्स रूम में उस मेज पर सजाता, जहाँ मैडम सुबह के समय आगंतुकों से मिल कर उनकी समस्याएं सुना करती थीं। भीतर के बरामदे में साहब ने भी एक टेबल लगवाई थी जहाँ शाम को कभी-कभी वह दारू पीने बैठा करते थे। फ्लॉवरपॉट वहां भी था, पर माली रामप्रसाद ने कभी वहां भूल कर भी एक पत्ती तक नहीं सजाई थी।<br />
एक बार नौकरानी ने माली को टोका भी,कि अंदर की मेज पर भी फूल रखा करे। रामप्रसाद उस दिन बड़े बेमन से क्यारी में नीचे गिरे गेंदे के कुछ फूल समेट कर ठूँस गया।<br />
जबकि मेमसाहब की मेज़ का गुलदस्ता वह ताज़ा खिले गुलाबों से सजाता था।<br />
एक दिन बाहर के लॉन में सुबह घर के सब लोग बैठे चाय पी रहे थे, तब माली एक सुंदर सा ताज़ा खिला गुलाब लेकर मेमसाहब के सामने पहुँच गया और उन्हें भेंट करके उसने साहब की ओर कनखियों से देखते हुए मैडम को एक ज़ोरदार सैल्यूट मारा। मैडम मुस्करा कर रह गयीं।<br />
लेकिन साहब के मानस-महल में मानो माली के व्यवहार से भयानक टूटफूट सी हो गयी। उन्होंने चिढ कर अख़बार उठा लिया।<br />
साहब की माताजी ने तो प्याले में चाय अधूरी छोड़ दी और उठ कर भीतर अपने कमरे में चली गयीं।<br />
असल में रामप्रसाद के इस व्यवहार के पीछे भी एक कारण था। उस गरीब के तीन बेटियां थीं, जिन्हें उसने किसी तरह हाथ-पैर जोड़ कर ब्याह तो दिया था, मगर वे सभी अपने-अपने घर में अपने शौहरों के जुल्म सह रही थीं।<br />
बड़ी बेटी तो दसवीं तक पढ़ कर पंचायत में आशा-सहयोगिनी के पद पर नौकरी भी कर रही थी। मगर उसका निखटटू पति सारा दिन बेकार घूम कर समय काटता था। उसका पूरा घर पत्नी की कमाई से ही चलता था पर पत्नी से घर में कोई सीधे-मुंह बात तक नहीं करता था। बीमारी तक में उसे इस डर से छुट्टी नहीं लेने देते थे कि कहीं पैसे न कट जाएँ। घर के काम में कभी कोई मदद न करता। <br />
उधर मझली अपने लंबे चौड़े परिवार के कारण हलकान थी। उसे अनपढ़ होने के ताने मिलते। <br />
तीसरी तो आये दिन पीहर में ही आ बैठती थी। घर के झगड़े उस से सहन नहीं होते थे। <br />
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[३]<br />
एस्टेब्लिशमेंट सेक्शन के दफ्तरी दुर्गालाल ने अपनी गोपनीयता भरी वाणी में कोई रहस्योद्घाटन सा करते हुए कहा- शायद प्रधानमंत्री कार्यालय से आयी कुछ योजनाओं के बाबत बाहर की दीवार पर जानकारी लिखी जाएगी, इसी से नाम-पट्टिका भीतर लायी गयी है। <br />
-अरे पर दीवार पर जगह की कोई कमी है क्या, नामपट्ट लगाने के लिए जगह ही कितनी चाहिए? गार्ड ने शंका जताई। उसे ये काफी नागवार गुज़र रहा था कि बंगले के बाहर साहब का नाम क्यों नहीं लिखा जा रहा ?आखिर उसकी शान तो दिनभर गन हाथ में लेकर गेट पर नाम के साथ खड़े होने में ही थी। हर आता-जाता देखे तो सही, वह किसका सुरक्षा-गार्ड है। शहर के वीआईपी इलाके से गुज़रने वाले लोग तो बड़े लोगों की नेम-प्लेट देखते हुए ही गुज़रते हैं। <br />
-नाम-पट्टिका तो पूरी दो बाई दो फिट की है, छोटी थोड़े ही है, जीएडी के चपरासी ने अपना पेंच रखा।<br />
तो क्या, अब उसकी वैल्यू ही क्या रह जाएगी बरामदे में टांगने से?<br />
शोर-शराबा सुन कर बंगले के बैठक-कक्ष में डस्टिंग कर रही महिला भी बाहर निकल आई। उसे बड़ा अचम्भा हुआ, जब उसने देखा कि इतने सारे लोग घर के बाहर खड़े साहब लोगों की नेम-प्लेट पर छींटाकशी कर रहे हैं। घर की वह नौकरानी साहब लोगों के थोड़ी मुंहलगी भी थी और काफी पुरानी भी। इसी से वह फैमिली मेम्बरों की तरह ही घर पर अपना कुछ अधिकार भी समझती थी। <br />
वह लगभग झिड़कने के से स्वर में ही बोली- मेम साहब ने ही बोला है तख्ती भीतर टांगने को।<br />
-क्यों? तीन-चार लोग लगभग एक साथ बोल पड़े। <br />
-अरे बाबा, तुमको दीखता नहीं? पट्टी पर दोनों साहब का नाम है। साहब का भी और मेम साहब का भी।<br />
यह सुनते ही गिरधारी लाल के हाथ में पकड़ी नेम-प्लेट को सब पॉलीथिन का कवर हटा कर देखने लगे। सच में वहां श्री और श्रीमती पंड्या दोनों का नाम लिखा था। <br />
रश्मि पंड्या आई ए एस ऊपर था,और सिद्धार्थ पंड्या, पी सी एस उसके नीचे। <br />
अब खुसर-फुसर की दिशा बदल गयी। <br />
साहब पी सी एस हैं ? उनका तबादला भी तो आठ दिन पहले यहाँ हुआ है। एक कर्मचारी ने मानो राज खोला।<br />
तो क्या मैडम साहब से बड़े ओहदे पर हैं? दफ्तरी को मानो विश्वास नहीं हुआ। <br />
-हैं तो क्या ? इसी से तो मेमसाहब ने नाम पट्टी इधर टांगने को बोला, बाहर से सब शहर का लोग देखेगा नहीं कि मेमसाहब साहब से बड़े ओहदे पर हैं, इधर का जिला अधिकारी ? साहब का फालतू में हेठी होगा। नौकरानी ने शान से ये रहस्य खोल कर सब पुरुषों को मानो मात ही दे डाली हो। उसकी आवाज़ ऐसे खनक रही थी जैसे उसकी मालकिन नहीं, बल्कि वह खुद इस शहर की जिला अधिकारी हो और ये सारे उसके मातहत। वह इतना ही बोल कर नहीं रुकी, उसने एक रहस्य और खोल दिया, बोली- मालूम है, दो महीना पहले साहब का माँजी आया था तब वो भी साहब को बोला कि इधर ट्रांसफर मत कराना , नहीं तो बहू के रुतबे में रहना पड़ेगा। और ज़्यादा दिमाग चढ़ेगा उसका। नौकरानी ने झटपट मुंह पर हाथ रखा, ... बाबा ये क्या बोल गयी सब लोग के सामने?<br />
अच्छा तभी ?...जीएडी के बाबू ने घोर आश्चर्य से कहा- पहले ये प्लेट गलत बन गयी थी। ऊपर साहब का नाम था, नीचे मेम साहब का। <br />
गलत नहीं बनी थी, मैडम ने खुद अपने हाथ से लिख कर दिया था, साहब का नाम ऊपर और अपना नीचे, मैं ही देने गया था डिपार्टमेंट के पेंटर को। ड्राइवर बोला।<br />
-फिर?<br />
-फिर क्या, प्रोटोकॉल वाले उसे कैंसल कर गए, दोबारा बनी। इस मामले में उन्होंने जिला अधिकारी के हाथ का लिखा भी काट दिया। ड्राइवर ने खुलासा किया।<br />
पर मैडम ने ऐसा क्यों लिखा, क्या उनको मालूम नहीं है कि जिला अधिकारी का नाम किसी विभाग के अंडर सेक्रेटरी के नीचे नहीं लिखा जा सकता ?<br />
...ड्राइवर मुंह फेर कर अपनी व्यंग्यात्मक हंसी रोकने की कोशिश करते हुए बोला- मुझे साहब के ड्राइवर ने सब बताया था, खुद साहब ने ही मेमसाहब को बोला था कि मेरा नाम ऊपर डालना, बेचारी मेमसाहब क्या करती ?कलेक्टर है तो क्या ,ऊपर तो साहब ही रहेंगे। <br />
... औरत है न बेचारी। नौकरानी के ऐसा बोलते ही एकदम चुप्पी छा गयी।<br />
सब तितर-बितर होने लगे। कौन जाने कल ही साहब के पास इस मीटिंग की खबर पहुँच जाए,और लाइन हाज़िर होना पड़े..... <br />
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[२]<br />
रामप्रसाद की शंका का समाधान दोपहर बाद जाकर हुआ। असल में बंगले में काम करने के लिए तो सरकारी कर्मचारी गिरधारी लाल की ड्यूटी ही लगी थी पर धनराज उस गिरधारी लाल का बेटा था। गिरधारी ने धनराज को पहले बंगले पर भेज दिया था ताकि वह दीवार में तोड़-फोड़ का काम करले। धनराज तो विद्यालय में पढ़ता था पर आज स्कूल की छुट्टी होने से पिता के काम में हाथ बँटाने उसके साथ बंगले पर चला आया था। <br />
बंगले में ट्रांसफर होकर कुछ दिन पहले ही नए साहब आये थे। मेंटिनेंस सेक्शन के कारीगर गिरधारी लाल को बंगले के बरामदे में साहब की नेम-प्लेट लगानी थी।<br />
नेम-प्लेट ग्रेनाइट के काले पत्थर पर पीतल के अक्षरों से बनी सुंदर सी पट्टिका थी। उसे दीवार में लगाना था। काम छोटा नहीं था। पहले दीवार में गड्ढा करके जगह बनानी थी, फिर उसमें सीमेंट से प्लेट लगाकर चारों ओर प्लास्टर करना था। और तब उसके बाद दीवार पर फिर से डिस्टेम्पर किया जाना था।<br />
एक पिक-अप से जब गिरधारी लाल पत्थर की वह बेशकीमती नेम-प्लेट लेकर उतरा,तो उसके साथ ही दो-चार लोग और भी उतरे।<br />
वे लोग वैसे तो बंगले में किसी न किसी अलग-अलग सरकारी काम से ही आये थे पर न जाने किस बहस में उलझे हुए वहीं घेरा बना कर खड़े हो गए। उनके बीच किसी रोचक मज़ेदार मुद्दे को लेकर चर्चा चल रही थी, दूसरे दोपहर का समय होने से साहब-मेमसाहब भी बंगले पर नहीं थे। तब भला उन्हें किसका डर?<br />
तो सब उस ग्रुप-डिस्कशन में इस तरह उलझे हुए थे मानो सरकार ने किसी मुद्दे पर पूरी तहकीकात करने का जिम्मा उन्हीं को सौंपा हो।<br />
उनकी उस गरमा-गर्म चर्चा का मुद्दा वही नेम-प्लेट थी जिसे अभी-अभी लेकर गिरधारी लाल आया था। <br />
वास्तव में हमेशा वह नेम-प्लेट बंगले की चार-दीवारी अर्थात बाउंड्रीवाल के बाहर लगा करती थी किन्तु न जाने क्यों,इतने सालों में पहली बार अब उसे भीतरी बरामदे की दीवार पर लगाया जा रहा था।<br />
-तो क्या इतने बड़े अफसर के बंगले पर बाहर अब कोई नाम-तख्ती नहीं होगी?<br />
-शहर भर के लोग कैसे जानेंगे कि आखिर बंगला किसका है?<br />
-क्या बाहर की दीवार की जगह सरकार ने भारी मुनाफे के लालच में किसी विज्ञापन कंपनी को बेच डाली?<br />
-या फिर अब सरकारी लोक-लुभावन नारे वहां लिखे जायेंगे?<br />
-लेकिन इतने सुन्दर और भव्य बंगले की शोभा बिगाड़ने का ये प्लान भला सरकार को क्यों सूझा ?<br />
-बंगले में एक बार अंदर आ जाने के बाद किसी आगंतुक के लिए उसमें रहने वाले की नेम-प्लेट का भला क्या महत्त्व है?<br />
यही वे चंद सवाल थे जिन पर मातहतों के बीच बात हो रही थी, वो भी किसी बहस-मुबाहिसे की शक्ल में !<br />
रामप्रसाद माली ही नहीं, इधर-उधर काम कर रहे और भी लोग, आगंतुक, राह चलते लोग इस चर्चा के निपट तमाशबीन ही बन कर इर्द-गिर्द जमा होते जा रहे थे। <br />
गिरधारी लाल का बेटा धनराज भी अब सुबह से पहनी बनियान के ऊपर अपनी टी-शर्ट डाल कर वहीं आ जुटा था। उसकी चिंता ये थी कि जब अब तक नेम-प्लेट को लगाने की जगह ही इतनी विवादास्पद है तो उससे नाहक इतनी मज़बूत दीवार में गड्ढा क्यों खुदवा लिया गया? वह सुबह से हथौड़ा चला कर पसीना बहाता हुआ हलकान हुआ जा रहा था।<br />
उसने कातर दृष्टि से अपने पिता की ओर देखा, किन्तु पिता के चेहरे का विश्वास देख कर उसे यकीन हो गया कि उसने कोई गलती नहीं की है, नेम-प्लेट वस्तुतः वहीँ लगाई जानी है।वह चेहरे पर इत्मीनान लाकर वार्तालाप के मज़े लेने लगा। <br />
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प्रोटोकॉल<br />
जाड़े के दिनों में पेड़-पौधों को पानी की बहुत ज़्यादा ज़रूरत नहीं रहती। तापमान कम रहने से वातावरण की नमी जल्दी नहीं सूखती। बल्कि इस मौसम में खिलते फूलों को तो हल्की-हल्की गुलाबी धूप ही ज़्यादा सुहाती है। इसलिए माली रामप्रसाद काम के तनाव में नहीं था। <br />
वह दो-चार खर-पतवार के तिनके इधर-उधर करके,पानी का पाइप क्यारियों में छोड़ता और हथेली पर खाज करता हुआ बरामदे में काम कर रहे लड़के धनराज के पास आ बैठता। सर्दियों में हाथ बार-बार सूखा -गीला करते रहने से हथेली की त्वचा ख़ुश्की से खुजलाने लग जाती थी। लगता था जैसे बदन पर से उम्र की परतें उतर रही हों।<br />
धनराज कम उम्र का लड़का था, इसलिए उस पर मौसम का कोई असर नहीं था। वह मुस्तैदी से काम किये जा रहा था। <br />
-तेरी उम्र कितनी है? रामप्रसाद ने पूछ ही लिया।<br />
-क्यों? धनराज ने एकाएक हाथ रोक कर पूछा। <br />
उसके सुर की तल्खी से रामप्रसाद सकपका गया। हड़बड़ा कर बोला-सरकारी नौकरी तो कम से कम अठारह साल में मिलती है न, तू हो गया ?<br />
लड़का थोड़ा घूर कर अप्रसन्नता से रामप्रसाद को देखता रहा, फिर लापरवाही से एक ओर थूक कर बोला- किसको मिली है नौकरी?<br />
रामप्रसाद असमंजस में पड़ कर चुप हो गया और धनराज को दीवार पर टिकी छैनी पर हथौड़े का वार करते हुए देखने लगा।<br />
दरअसल माली रामप्रसाद की मोटी बुद्धि यही कहती थी कि इतने बड़े सरकारी बंगले में काम करने आया आदमी सरकारी नौकर ही तो होगा। उसने सोलह-सत्रह साल के लड़के को काम करते देखा तो सहज ही पूछ लिया।<br />
खुद रामप्रसाद को भी तो तनख़ा सरकारी खजाने से ही मिलती थी। <br />
ये बात अलग थी कि उसकी तैनाती बरसों से इसी बंगले पर थी। उसे नहीं पता था कि उसका वेतन कहाँ से आता है, कौन लाता है, कैसे लाता है, उसे तो बस हर महीने बंगले में रहने वाले साहब का कोई मातहत गिन कर पैसे पकड़ा जाता था और चील-कव्वे जैसे उसके दस्तखत ले जाता था।<br />
अनपढ़ रामप्रसाद को बीज बोकर उसका दरख़्त बना देना तो आसान लगता था पर दस्तखत करने में पसीना आ जाता था।<br />
इन बरसों में उसके देखते-देखते कई साहब लोग बदल कर जा चुके थे। उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था कि कौन से साहब आये, कौन से गए।उसका काम तो बंगले को गुलज़ार रखने का था। उसमें वो कोई कोताही नहीं करता था।<br />
कई बार ऐसा भी हुआ कि एक साहब के जाने और दूसरे के आने के बीच समय का लंबा अंतराल रहा। लेकिन रामप्रसाद ने खाली बंगले की भी कोई गुल-पत्ती कभी लापरवाही के चलते मुरझाने नहीं दी। <br />
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साफ़ -सफ़ाई होती अच्छी<br />
रहे स्वच्छता सदा मिशन<br />
मंगल -ग्रह पर करें सफाई<br />
मिल जाये जो परमीशन<br />
बोला शेर- "वहां कर दूंगा<br />
साफ-सफाया हिरनों का"<br />
चला मिटाने धूर्त भेड़िया <br />
नामो-निशाँ मेमनों का<br />
कुत्ता कहता-"एक न छोड़ूं<br />
मंगल ग्रह पर मैं बिल्ली"<br />
बिल्ली बोली-"खाऊं चूहे<br />
परमीशन देदे दिल्ली"<br />
बच्चे बोले- "कैसी बातें<br />
करते हैं ये अनपढ़ लोग<br />
नहीं गंदगी दूर भगाते<br />
बस करना चाहें सब भोज<br />
खाना ही है तो फल खाओ<br />
लीची-सेव-पपीता-आम<br />
काम करो मेहनत से सारे<br />
जिस से हो मंगल पे नाम" ! </div>
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श्रीहान और सुयश का स्कूल देख कर दोनों जुगनू "ए"और "वन" बहुत ही खुश हुए।<br />
वे दोनों कॉकरोच के कंधे पर बैठ कर ही स्कूल आये थे। कॉकरोच की धीमी चाल के कारण कबूतर ने उसे चोंच में पकड़े एक तिनके पर बैठा लिया था और उड़ कर यहाँ ला पहुँचाया था। <br />
स्कूल की प्रार्थना के बाद राष्ट्रगीत में जब बच्चों ने गाया -"जन गण मंगल दायक जय हे" तो दोनों जुगनुओं की आँखें ख़ुशी के आंसुओं भीग गयीं। अपने ग्रह का नाम इतनी दूर बच्चों के मुख से सुन कर वे गदगद हो गए।<br />
लौटते समय जुगनू तो अपने ग्रह को याद कर रहे थे किन्तु कॉकरोच का पूरा ध्यान सुयश के टिफ़िन में बचे खाने पर था। वह इस इंतज़ार में था कि घर पहुँच कर सुयश के टिफ़िन की जूठन डस्टबिन में फेंकी जाए और उसे दावत मिले।<br />
शाम को सबने मिलकर जुगनुओं को "ज़ू" दिखाने का कार्यक्रम बनाया। चिड़ियाघर कहे जाने वाले इस ज़ू में हाथी,ज़िराफ,ऊँट,शुतुरमुर्ग,दरियाईघोड़ा,बारहसिंघा,घोड़ा, गेंडा,भैंस,शेर,बाघ,चीता,रीछ,लकड़बग्घा,कंगारू,भेड़िया,हिरण,गोरिल्ला,लंगूर,बन्दर,मगरमच्छ,भालू जैसे एक से एक विशालकाय प्राणी थे। इनके साथ तोता,मोर,बगुला,नीलकंठ,कोयल,सारस,गौरैया,मैना , बत्तख और मुर्ग़े की छटा भी देखते ही बनती थी। <br />
जुगनुओं ने अब तक अपने दोस्तों -छिपकली,मेंढकी,कॉकरोच,कबूतर,गिलहरी आदि को ही देखा था।<br />
जब उन्होंने वहां इन भीमकाय प्राणियों को देखा तो मन ही मन फ़ैसला किया कि वे इनमें से कुछ को अपने साथ मंगल पर चलने का निमंत्रण देंगे। उन्होंने सोचा-यदि ये वहां चले तो उनके ग्रह पर भी रौनक हो जाएगी।<br />
गिलहरी को जैसे ही जुगनुओं की इस मंशा का पता चला, उसने तत्काल जुगनुओं को सलाह दी कि ये सब प्राणी भोजन-भट्ट हैं, इन्हें यूँही खाना मत देना, इनसे कुछ काम-धाम भी करवाना। <br />
मेंढकी बोल पड़ी-"तुम मंगल ग्रह पर सफाई अभियान चला देना। इस से ये सब कुछ तो काम-धाम करेंगे"<br />
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मंगल ग्रह से आये देखो<br />
दो छोटे-छोटे मेहमान<br />
आओ इन्हें घुमाएंगे हम<br />
अपना प्यारा हिंदुस्तान<br />
इनका ग्रह है नया-नवेला<br />
वहां नहीं रहते हैं लोग<br />
ये संग उसको ले जायेंगे<br />
काम करे डट के जो रोज<br />
याद मगर ये रखना मित्रो<br />
जीवन है वो मस्ती का<br />
काम वहां मेहनत से करके<br />
मान बढ़ाना धरती का !<br />
मगर तभी तिलचट्टा आया<br />
बोला चुपके कानों में<br />
मंगल ग्रह जाने वालों के<br />
नाम लिखे मेहमानों ने<br />
नाना इनको नहीं भेजना<br />
सारे बात बनाते हैं<br />
हाथ नहीं धोते साबुन से<br />
शौच खुले में जाते हैं !<br />
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तभी आसमान से अचानक ज़ोर-ज़ोर से बादलों के कड़कड़ाने की आवाज़ आने लगी। गरज के साथ ही कुछ मोटी-मोटी बूँदें गिरनी शुरू हुईं और देखते-देखते मूसलाधार बारिश शुरू हो गयी। अपना-अपना काम रोक कर सब गैरेज में ही इधर-उधर छिप गए। <br />
अरे ये क्या? आकाश केवल बारिश करके ही नहीं रुका,बल्कि बूंदों के पीछे-पीछे रुई के सफ़ेद फाहे से ओले भी झमाझम नाचते हुए गिरने लगे।<br />
एक बड़ा सा सफ़ेद बर्फ का गोल टुकड़ा उछलता हुआ गैरेज के ठीक सामने की ओर आकर गिरा।<br />
कॉकरोच चिल्लाया-"वो देखो वो देखो...."<br />
-"क्या" मेंढकी ने गर्दन उठा कर देखते हुए कहा।<br />
-"मुझे लगता है कि वो ओला नहीं है बल्कि उस में ही मंगल ग्रह के जुगनू आये हैं।" कॉकरोच ने पूरे विश्वास से कहा। <br />
गिलहरी डाँट कर बोली -"चल ! तुझे वो ओला टैक्सी दिखती है क्या?"<br />
सब हँस पड़े। <br />
इतने में ही दीवार पर ऊपर की तरफ से रेंगती हुई एक छिपकली नीचे आई और बोली-"तुम लोग इस कॉकरोच की हँसी उड़ा रहे हो, मगर ये एकदम ठीक बात कह रहा है। मैं अभी ऊपर से देख रही थी, ये जो बड़ा सा ओला आकर गिरा है, इसमें से ज़ोर की चमक बार-बार निकलती है। ये ज़रूर कोई अजूबा है। साधारण बर्फ का गोला नहीं है।"<br />
छिपकली की बात से सब चौकन्ने हो गए और रोमांचित होकर उस तरफ देखने लगे जिधर वह ओला पड़ा था। सचमुच ऐसा लग रहा था कि बर्फ का वह टुकड़ा धूप में चमक रहा हो। लेकिन धूप का तो कहीं नामो-निशान नहीं था, आसमान तो बादलों से घिरा था। <br />
-"शायद भीतर से जुगनू लोग टॉर्च डाल कर बाहर का मुआयना कर रहे हैं?" मेंढकी ने कहा।<br />
-"तो वो निकलने में इतनी देर क्यों लगा रहे हैं?"गिलहरी से रहा न गया। <br />
-"इतनी दूर से आये हैं, वो थके-मांदे भी तो होंगे।"कॉकरोच बोला। <br />
-"और भूखे भी तो।" मेंढकी ने चिंता जताई।<br />
-"अरे पर वो दिखते क्यों नहीं हैं? 'मिस्टर इंडिया' हैं क्या ?"छिपकली झल्लाई।<br />
-"मिस्टर इंडिया कैसे हो सकते हैं, वे तो मिस्टर मंगल होंगे।" कॉकरोच ने अपना ज्ञान बघारा।<br />
एकाएक वहां भगदड़ सी मच गयी। एक चूहा तेज़ी से दौड़ता हुआ सामने से भागा, उसके पीछे-पीछे एक बिल्ली भी दौड़ लगाती हुई आई। चूहा झटपट एक पेड़ की जड़ में बने बिल में घुस गया, बिल्ली हाथ मलती रह गयी।<br />
बिल्ली ने वहां इतने सारे प्राणियों को देखा तो शर्म से पानी-पानी हो गयी। अपनी झेंप मिटाने के लिए बोली-"मैं तो इस चूहे को खीर खिलाने के लिए बुला रही थी। शरारती कहीं का ! देखो न जाने कहाँ छिप गया।" <br />
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आज श्रीहान और सुयश स्कूल से कुछ देरी से वापस आने वाले थे। गिलहरी ने खुद अपने कानों से सुना था ,वे अपनी मम्मी को बता रहे थे कि आज उनके स्कूल में खेल की प्रतियोगिता है इसलिए लौटने में देरी होगी। मम्मी ने उन्हें लंचबॉक्स में भी न जाने क्या-क्या स्वादिष्ट चीज़ें बना कर दी थीं। गिलहरी तो उसकी खुशबू से ही तृप्त हो गयी थी। वह बार-बार उनके बैग के चारों ओर चक्कर काटती और ये सोचती रही कि काश, वे दोनों टिफिन में कुछ जूठन बचा कर ले आएं और उनकी मम्मी गार्डन में रखी डस्टबिन में उसे फेंकें। गिलहरी के मज़े आ जाएँ। तभी गिलहरी को याद आया कि कल क्लब हॉउस के पीछे वाले पेड़ पर बैठे तोते ने कहा था-ज़्यादा लालच नहीं करना चाहिए। लालच सेहत को गिरा देता है।<br />
गिलहरी ने मन ही मन भगवान से माफ़ी मांगी और दौड़ कर साइकिल गैरेज के चाबी वाले छेद में आराम करने चल दी। आज श्रीहान और सुयश देरी से आने वाले थे तो खूब देर तक उस जगह बैठने का मौका था। गिलहरी ने हाथ में दो बड़े-बड़े जामुन लिए और फुदकती हुई चल दी। <br />
लेकिन वहां जाकर तो गिलहरी के मंसूबों पर पानी ही फिर गया। वहां तो पहले से ही कबूतर, कॉकरोच, चिड़िया और छोटी मेंढकी जमा थे। मेंढकी लॉन से पानी का पाइप खींच कर चाबीघर को धो रही थी और कबूतर पंखों से झाड़-झाड़ कर उसे साफ़ कर रहा था। चिड़िया क्यारी से छोटे-छोटे फूल लाकर चाबीघर को सजाने में लगी थी। कॉकरोच चींटियों को वहां आने से रोक रहा था। <br />
गिलहरी को अचम्भा हुआ-ये सब तैयारी किसलिए ? क्या यहाँ कोई आने वाला था? उसने आख़िर पूछ ही लिया। <br />
चिड़िया चहचहाई-"लो, इसे ये भी मालूम नहीं,अरे हर साल सोलह अक्टूबर को मंगल ग्रह के जुगनू यहाँ आते हैं या नहीं? धरती पर ! वही तो हमारे मेहमान हैं। उन्हें ठहराने की तैयारी नहीं करनी ?"<br />
ओह, अच्छा मैं तो भूल ही गयी थी। <br />
मंगल ग्रह के जुगनू ए और वन हर साल ही यहाँ आते थे। ये सब उनके दोस्त बन गए थे, सब मिल कर खूब मौज-मस्ती करते थे। <br />
चिड़िया बोली-"इस बार तो ए और वन ये देख कर खुश हो जायेंगे कि श्रीहान और सुयश स्कूल भी जाने लगे हैं।"<br />
-"हम लोग उन्हें स्कूल दिखा कर भी लाएंगे।" कबूतर ने पंख फड़फड़ाते हुए कहा।<br />
-"कैसे" मेंढकी बोली।<br />
-"कैसे क्या? मंगल ग्रह के जुगनू कोई हाथी-घोड़े थोड़े ही हैं,उन्हें तो मैं अपनी पीठ पर बैठा कर ही ले जाऊंगा।" कॉकरोच बोला। <br />
गिलहरी से नहीं रहा गया। फ़ौरन बोली-"पीठ पर तो बैठा लेगा, पर वहां इतनी दूर जायेगा कैसे? सोमवार को गया तो मंगल को पहुंचेगा।"<br />
-"अच्छा है न, मंगल ग्रह के जुगनू मंगल को ही पहुंचेंगे।" मेंढकी ने हंसी दबा कर कहा। <br />
अपनी इस तरह खिल्ली उड़ती देख कर कॉकरोच तिलमिला गया।<br />
बोला-"क्यों, जब उनकी मम्मी स्कूल छोड़ने जाती हैं तो वह क्या कार धीरे-धीरे नहीं चलातीं ?<br />
-"अरे हाँ,ये ठीक कह रहा है, वह बहुत धीरे चलाती हैं, एक दिन सुयश अपना लिखने का चॉक घर पर ही भूल गया था, तो पीछे से उसे चौंच में दबा कर मैं देने गया। मैंने देखा कार तब तक आधे रास्ते में ही पहुंची थी। मैं उड़ता तो कार बार-बार पीछे रह जाती थी।"कबूतर ने कॉकरोच का पक्ष लिया। <br />
-"फिर"? गिलहरी ने पूछा।<br />
-"फिर क्या, मैं कार की खिड़की से चॉक सुयश को दे आया।" कबूतर बोला। <br />
-"वाह !" सब एक साथ बोले। <br />
-"मम्मी धीरे चलाती हैं तो श्रीहान कितना नाराज़ होता है, उसे पापा के साथ तेज़ी से घूमना अच्छा लगता है ?"कबूतर ने कहा।<br />
-"लेकिन श्रीहान को तो साइकिल बहुत तेज़ चलाना अच्छा लगता है।"गिलहरी बोली।<br />
-"अरे जा-जा, कल तो सड़क पर इतना धीरे चला रहा था कि मैं सड़क को आसानी से पार कर गयी।" मेंढकी ने गिलहरी की बात काटी।<br />
गिलहरी ने झट सफाई दी-"अरे कल तो वो प्रगुनी को साइकिल चलाना सिखा रहा था, उस से कह रहा था कि ऑलिम्पिक में मैडल लड़कियों को ही मिलता है।" <br />
चिड़िया ने बात का पटाक्षेप किया, बोली-"कॉकरोच भाई का क्या है, ए और वन को पीठ पर बैठा कर श्रीहान या सुयश के बैग में ही घुस जायेंगे, तो स्कूल पहुँच जायेंगे।" <br />
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झाँका पिंजरे में से, बोला-<br />
प्यारा टैडी बियर<br />
मैं जाऊंगा मंगल-ग्रह पे<br />
बनके इंजीनियर !<br />
बत्तख बोली-एक तो मैं हूँ<br />
साथ मेरा मंगेतर<br />
कितने ले जाने हैं तुमको<br />
मंगल-ग्रह पे टीचर ?<br />
भैया जुगनू जी मंगल पर<br />
चाहो कोई नेता<br />
गैंडा बोला-मुझे बुलाना<br />
बाक़ी सब अभिनेता<br />
जर्मन अंग्रेजी जापानी<br />
सीखी उसने भाषा<br />
मंगल-ग्रह पर जाने की थी<br />
तोते को भी आशा<br />
मुर्गा बोला- होता कैसे<br />
बोलो वहां सवेरा ?<br />
अगर कहो तो मैं भी चल कर<br />
डालूँ अपना डेरा<br />
सुना बहुत हैं बड़े वहां तो<br />
गड्ढे उस धरती पर<br />
वरना मैं भी आती मंगल<br />
हथिनी बोली डर कर<br />
भालू बोला मुझे पता है<br />
जंगल का कानून<br />
मुझको लेके चलो बना दूं<br />
मंगल का कानून <br />
</div>
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खूब ज़ोर से बारिश हो रही थी। बादलों को बरसते हुए कई घंटे बीत चुके थे, पर न जाने उनके मटके में कितना पानी था, उँडेले ही जा रहे थे। <br />
बच्चे खेलना छोड़ कर घरों के भीतर तो आ गए थे, पर वर्षा का आनंद ही कुछ ऐसा था कि भीतर बैठ कर उनका मन नहीं लग रहा था। खिड़कियों से झांकते सभी इस इंतज़ार में थे कि बारिश रुके तो फिर से धमाचौकड़ी मचाने घर से बाहर निकलें। <br />
लेकिन जैसे-जैसे पानी बरसता था, चारों ओर सड़कों और मैदानों में पानी के तालाब से बनते जाते थे।<br />
शायद श्रीहान और सुयश को मौसम के इस मिजाज़ का पूर्वानुमान पहले ही हो गया था इसी से उन्होंने अपनी साइकिलों के लिए एक छोटा सा गैरेज बना लिया था।<br />
दोनों में से जो भी पहले आता उसे अपनी साइकिल भीतर की ओर रखनी पड़ती। जो देर से आकर बाद में रखता उसकी बाहर की ओर। मज़े की बात ये थी कि दोनों अक्सर साथ-साथ ही वापस घर आते, लेकिन दोनों ही ये कोशिश करते थे कि पीछे आकर अपनी साइकिल बाहर की ओर ही रखें ताकि सुबह पहले उसे निकाला जा सके। कभी-कभी रात को खाना खाने के बाद भी यदि साइकिल पर घूमने का मन हो तो आराम से लेकर सड़क पर आया जा सकता था।<br />
साइकिल गैरेज की छत की ओर एक छोटा सा छेद भी बनाया गया था, जिस से कभी-कभी साइकिल की चाबी वहां रखी जा सके।<br />
एक ईंट हटा कर बनाया गया यह चाबी घर इतना सुन्दर था कि सामने के पेड़ पर रहने वाली गिलहरी का मन तो उसे देख कर ललचाता ही रहता था। वह चाहती थी कि उस चाबी घर को वह अपना रहने का कमरा बना ले। पेड़ के ऊबड़-खाबड़ तने पर सोने से गिलहरी की कमर दुखती थी। बढ़िया पक्के ईंट के फर्श पर सोने का तो आनंद ही निराला था। गिलहरी ने एक दिन खिड़की से खुद देखा था कि बाबा रामदेव टीवी पर पक्के फ़र्श पर सोने के कई लाभ बता रहे थे। <br />
समस्या ये थी कि वहां श्रीहान और सुयश कभी-कभी अपनी चाबियाँ रखा करते थे। गिलहरी डरती थी कि वह आराम से वहां बैठी हो और उसी समय कोई आ जाये तो उसे दुम दबा कर भागना पड़े। <br />
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