मंगलवार, 3 जनवरी 2017

और दिनों के विपरीत आर्यन छुट्टी होते ही बैग लेकर स्कूल बस की ओर नहीं दौड़ा बल्कि धीरे-धीरे चलता हुआ, क्लास रूम के सामने वाले पोर्च में रुक गया। इतना ही नहीं, उसने दिव्यांश को भी कलाई से पकड़ कर रोक लिया।  झटके से रुका दिव्यांश असमंजस में पड़ कर आर्यन की ओर देखने लगा।  लेकिन उसे आर्यन के चेहरे पर मज़ाक या खेल करने जैसा कोई संकेत नहीं मिला, बल्कि वह तो रोनी सूरत बनाये, पूरी गंभीरता से उसे रोक रहा था। हैरान होकर दिव्यांश ने पूछा- "क्या हुआ?"
और जवाब में आर्यन रो पड़ा।
-"प्लीज़ ,रुकजा न !"उसने भरे गले से ही कहा।
-"अरे पर क्यों?" दिव्यांश ने कहा।
-"मुझे अकेले डर लगता है।"आर्यन अपने मित्र दिव्यांश को बांह पकड़ कर वापस क्लासरूम की ओर ठेलने लगा।
सातवीं कक्षा में पढ़ने वाले तेरह वर्षीय दोनों किशोर, अच्छे मित्र थे, फिर भी दिव्यांश को ये सुन कर अजीब सा लगा।  उसे ये समझ में नहीं आया कि आखिर शाम को स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद भी आर्यन उसे इस तरह रोक क्यों रहा है।
सामने विद्यार्थियों से भरी बसें हॉर्न दे रही थीं और थोड़ी ही देर में स्कूल परिसर वीरान हो जाने वाला था। लेकिन इस सब से बेखबर आर्यन दिव्यांश को वापस क्लासरूम में ले गया।
थोड़ी ही देर में बसों के धूल उड़ाते हुए निकल जाने से सन्नाटा हो गया। शिक्षकों और स्टाफ के स्कूटर व बाइक्स भी एक-एक कर ओझल होने लगीं। प्रिंसिपल साहब की कार के गेट से निकलते ही पूरे अहाते में एक मात्र गार्ड रह गया जो हाथ में चाबियों का बड़ा गुच्छा लेकर सारे कमरे बंद करने में तल्लीन था।
अब दिव्यांश का माथा ठनका। उसने आर्यन को झिंझोड़ डाला।
लेकिन चौकीदार के आने की आहट सुन कर आर्यन फुर्ती से टेबल के नीचे छिप गया और उसने मुस्तैदी से दिव्यांश को भी खींच कर नीचे बैठा लिया।
-"देख तू मेरा बेस्ट फ्रेंड है न, मेरी बात मान..."बौखलाए हुए दिव्यांश को आर्यन ने दोस्ती का वास्ता देकर रोक लिया।  चौकीदार जा चुका था,और अँधेरा घिरने लगा था।
अब दोनों मित्र इत्मीनान से एक बेंच पर बैठे थे। दिव्यांश ने आर्यन का हाथ अपने हाथ में ले रखा था और ध्यान से उसकी बात सुन रहा था।
सामने रखे  लंचबॉक्स में सुबह का बचा खाना खाते हुए दोनों दोस्त बात कर रहे थे। दिव्यांश को लगा कि आर्यन का इरादा सुबह से ही यहाँ रुकने का था शायद इसीलिये उसने खाना भी बचा रखा था। उसे आर्यन के साथ पूरी सहानुभूति थी। तन्मयता से बात करते हुए दोनों ये भी भूल बैठे थे कि रात को घर कैसे जायेंगे? डर की जगह अब चिंता ने ले ली थी।                   

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